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मेरा असन्तोष

ही लिए है---ऐसी जवाबदेही जो संस्था हमें सिखाती हो वह स्वागत योग्य है। आशा करता हूँ कि हमारी संस्था ऐसी ही सिद्ध होगी।

[ गुजराती से ]
नवजीवन, २-११-१९२४

२३९. मेरा असंतोष

'यंग इंडिया' में मैंने वाइसराय साहबके 'बम' के बारेमें जो कुछ लिखा[१] है, उससे मुझे जरा भी सन्तोष नहीं हुआ है। कड़ुवा लेख सत्यसे भरा होनेपर भी किसी कठोर कार्यका जवाब नहीं होता। बंगालमें सरकारने जो राजनीति अपनाई है, वह एक कठोर कार्य है। उसका जवाब किसी-न-किसी कार्यके ही द्वारा दिया जा सकता है। अंगारेको हम जिस तरह पानीसे ही बुझाते हैं, उसी तरह इस अंगारे-रूपी कार्यका भी शमन हम शान्तिपूर्ण कार्यके द्वारा ही कर सकते हैं।

पर वह शान्ति लायें कहाँसे? "शान्तिमय असहयोग" और "सविनय अवज्ञा", ये तो आज शब्द मात्र रह गये हैं। यदि आज हिन्दू-मुसलमान आपसमें न लड़ते होते, यदि आज हिन्दुस्तानमें लाखों नर-नारी सूत कातते होते, यदि आज अस्पृश्यताके मैलको हिन्दुओंने धो डाला होता तो वाइसराय साहबका यह बम फूट ही नहीं सकता था।

पर हम शान्तिको भूल गये हैं। जरा भी बहाना मिला कि हिन्दू-मुसलमान आपसमें लड़ने लग जाते हैं। चरखेका प्रचार भी नगण्य ही हुआ है। विदेशी कपड़ा अभीतक हमें प्रिय है। अस्पृश्यताका प्रायश्चित्त थोड़े ही हिन्दुओंने किया है। ऐसी हालतमें सरकार के आतंकका जवाब देने के लिए लोगोंके पास कोई भी साधन नहीं है। सरकारने देशबन्धु दासके पर काट लेनेका प्रयत्न किया है और बंगाल तथा दूसरे प्रान्त भी टुकुर-टुकुर देख रहे हैं! विरोध और नापसन्दगी जाहिर करनेवाले लेखोंका तो ढेर लग गया है, पर उससे अधिक करनेकी शक्ति हममें दिखाई नहीं देती।

यही है, मेरा असन्तोष।

जब कार्यकी दवा मुझे कार्यके रूपमें मिल जाती है तब तो मुझे मौन रह कर बैठ जाना ही अधिक प्रिय है। मैं यदि सम्पादक न होता तो शायद चुप ही रह जाता। पर मैंने सोचा कि एक सम्पादककी हैसियत से मुझे अपनी राय जरूर प्रकाशित करनी चाहिए। इसीसे मैंने 'यंग इंडिया' में वह लेख लिखा। शायद आगे भी मुझे बोलना या लिखना पड़े।

पर यह सब मेरे लिए अतिशय कष्टकर है। १९२१ में जब सरकारने ऐसी नीति चलाई थी, तब मुझे जरा भी चिन्ता नहीं हुई थी; क्योंकि उस समय मैं यह समझता था कि हमारे पास तो अक्सीर इलाज है और उसका प्रयोग भी हम जानते

  1. देखिए "हितोंका संघर्ष", ३१-१०-१९२४।