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२४३. सन्देश: 'बंगाली' को[१]
२ नवम्बर, १९२४
मेरे पास देने योग्य कोई सन्देश नहीं है। मैं क्या कहूँ? मैं सोच रहा हूँ। मैं इस अन्धेरेमें प्रकाश पानेका प्रयत्न कर रहा हूँ।
[ अंग्रेजी से ]
अमृतबाजार पत्रिका,७-११-१९२४
अमृतबाजार पत्रिका,७-११-१९२४
२४४. पत्र: हिन्दी साहित्य सम्मेलनको
कलकत्ता
कार्तिक सुदी ७ [ ३ नवम्बर, १९२४ ]
आपके तार आये। भाई मनजीत सिंहने खूब समझाया। परन्तु मुझको समझानेकी आवश्यकता ही क्या है? हिन्दी भाषाके लिए मेरा प्रेम भारतवर्षके सब हिन्दी प्रेमी जानते हैं। मेरा आना असंभवित है, मेरे पास इतना काम पड़ा हुआ है, जिसको मैं पहुँच नहीं सकता हूँ। इसीलिए मुझको क्षमा कीजिए। मैं इन कामोंसे निकलना चाहता हूँ।
आपका,
मोहनदास गांधी
आज, ११-११-१९२४
२४५. तार: हिन्दी साहित्य सम्मेलनको[२]
[ ३ नवम्बर, १९२४ के पश्चात् ]
मुझसे आग्रह करने की जरूरत नहीं है। अगर मैं आ सकता तो खुशी से आता, परन्तु आना असम्भव है। सफलता चाहता हूँ।
आज, ११-११-१९२४