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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं लौटता था। पाठक ऐसा न समझें कि उस समय हिन्दुस्तानसे कुछ अधिक राजनीतिक मदद मिलती थी। जैसा आन्दोलन आज केनियाके सम्बन्धमें चल रहा है, वैसा ही आन्दोलन तब दक्षिण आफ्रिकाके विषय में चल रहा था और आज भी चल रहा है--अर्थात् देशकी सहानुभूति व्यक्त करते हुए कुछ सभाओंका आयोजन और विधान सभाओंमें भाषण आदि। फिर, हिन्दुस्तानसे दक्षिण आफ्रिकाको जो पैसे भेजे गये, उनके विषयमें भी पाठक किसी भ्रममें न पड़ें। हिन्दुस्तानसे दक्षिण आफ्रिकाको पैसा तभी भेजा गया जब दक्षिण आफ्रिकावासी भारतीयोंके हाथसे उनकी अपनी धन-सम्पत्तिके भी निकल जानेकी स्थिति आ गई थी और उन्होंने जो बहुत सारा चन्दा किया था, वह भी अपने संघर्षमें खर्च कर दिया था। हिन्दुस्तानसे भेजे गये पैसेमें से बची हुई एक मोटी रकम फिर हिन्दुस्तानको वापस भेज दी गई थी। इसके सिवा, उस समय भी हिन्दुस्तानकी कुछ संस्थाओंका खर्च दक्षिण आफ्रिकावासी भारतीय ही उठाते थे। दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंकी विजयका कारण भी वहाँ रहनेवाले भारतीयोंका प्रबल सत्याग्रह ही था। हजारों लोग जेल गये, जिनमें स्त्रियाँ भी शामिल थीं; कुछकी जानें गईं; कुछ निर्वासित कर दिये गये; बहुत-से लोग कंगाल हो गये; एक बाला जेलमें हुए रोगके कारण बादमें मृत्युको प्राप्त हुई[१]; दो युवकोंको प्राण गँवाने पड़े[२]--एक को जेलमें हुए कष्टोंके कारण और दूसरेको देश-निकालेके दौरान हुए कष्टोंके कारण; कुछको कोड़े सहने पड़े। इतना सब झेलने और आठ वर्षके सत्याग्रहके बाद उन्हें वह चीज मिल पाई जिसके लिए वे लड़ रहे थे। किन्तु, इसके बावजूद, लड़ना तो आज भी बाकी है ही। जिस हथियारसे विजय मिली, उसी हथियारसे अपनी उपलब्धि कायम रखी जा सकती है तथा नई पाई जा सकती है, यह अनिवार्य नियम है। जिस प्रकार क्षत्रिय जीतमें मिले हुए प्रदेशको शत्रुके सबल हो जानेपर या स्वयं दुर्बल हो जाने-पर खो बैठता है, उसी प्रकार सत्याग्रही भी स्वयं दुर्बल हो जानेपर अथवा शत्रु के सबल हो जानेपर अपनी विजयमें मिली चीज खो देता है। दक्षिण आफ्रिकामें अथवा किसी भी अन्य देशमें रहनेवाले भारतीयोंके दुःखका इलाज स्वयं उन्हीं के हाथमें है। उनमें चरम दुःख सहने और शुद्ध होने और शुद्ध रहनेकी जितनी ज्यादा शक्ति आयेगी, वे अपने स्वाभिमानको रक्षा उतनी ही ज्यादा कर सकेंगे। प्रवासी भारतीयोंको इतना तो याद रखना ही चाहिए कि वे विदेश कमानेके इरादेसे जाते हैं। राजनीतिक दुःख सहकर भी वे यहाँकी अपेक्षा वहाँ अधिक कमाते हैं। जब ये दुःख भोगकर भी वे यहाँकी अपेक्षा अधिक कमाते हैं तब इन दुःखोंके कम हो जानेपर तो वे और भी ज्यादा कमायेंगे। इस बीच वे गरीब हिन्दुस्तानको यथाशक्ति पैसेकी मदद देनेमें पीछे न रहें, यही इष्ट है। वे प्रत्येक याचकको ठोक-बजाकर देखें। संस्था तथा संचालकके गुण-दोषोंकी जाँच करनेके बाद यदि दोनोंकी पात्रता सिद्ध हो जाये तो प्रवासियोंका धर्म है कि वे धनसे ऐसी संस्थाओं की मदद करें।

[ गुजराती से ]
नवजीवन, ६-११-१९२४
  1. और
  2. देखिए खण्ड १५, पृष्ठ १६९।