२५२. भाषण: कलकत्ताके कताई-प्रदर्शन में[१]
६ नवम्बर, १९२४
आप सबको चरखे चलाते देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है। आशा है, आपमें से जो लोग अभी कताई नहीं कर रहे हैं, वे भी तत्काल यह काम शुरू कर देंगे। संस्कृतमें एक कहावत है कि किसी बातका अनारम्भ तो बुद्धिमानी है, लेकिन एकबार कार्यारम्भ कर देनेपर उचित सफलता मिलनेतक बीचमें ही उसे नहीं छोड़ देना चाहिए।
जिन लोगोंने कताई शुरू कर दी है और जो लोग शुरू करनेवाले हैं उन्हें कमसे-कम स्वराज्य प्राप्तितक कताई करते जानेका संकल्प कर लेना चाहिए। आज आपके इस मौन स्वागतसे मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ।
अमृत बाजार पत्रिका,७-११-१९२४
२५३. अपरिवर्तनवादियोंके साथ बातचीत[२]
७ नवम्बर, १९२४
प्रारम्भमें अपनी वृत्ति समझाते हुए गांधीजीने कहा:
खुद मुझे अपने कार्यके औचित्यके सम्बन्धमें तनिक भी शंका नहीं है। अबतक मैं कार्याकार्यके भँवरमें पड़ा हुआ था, लेकिन अब मेरा मन हलका हो गया है। मुझे पूरा विश्वास है कि मैंने जो किया, उससे भिन्न कुछ कर ही नहीं सकता था। अहिंसावादीका धर्म ही यह है कि वह इतना त्याग करे कि फिर उसके पास त्यागनेको कुछ रह ही नहीं जाये। इसलिए मैं इस अन्तिम निष्कर्षपर पहुँचा हूँ अर्थात् मुझे इस सीमातक त्याग करना है कि प्रतिपक्षीको ऐसा लगे कि अब तो हद हो गई---इतना कि विरोधी मेरे त्यागको देखकर स्तम्भित रह जाये। फिर यह मेरा पहला अनुभव नहीं है। दानका धर्म ही यह कहता है कि इतना दो कि लेनेवाला खा-खाकर अघा जाये। वैसे मैंने यहाँ जो दान किया है वह उस तरहका दान नहीं है और न उस तरहका त्याग ही है। मैंने तो जो दिया है, उसे मैं कहीं ज्यादा तो नहीं तोल रहा हूँ या उसे उधार तो नहीं दे रहा हूँ, इसका विचार करके ही दिया है। मैं धीरे-धीरे, क्रमशः, एक-एक इंच करके पीछे हटा हूँ। हाँ, कुछ लोग ऐसा मानते जरूर हैं कि मैंने, जितना उन्होंने सोचा था, उससे आगे बढ़कर दिया है।