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अपरिवर्तनवादियों के साथ बातचीत

यदि आप एक बार ऐसा समझ जायें कि अभी असहयोग नहीं चल सकता तो यह बात आपकी समझमें तुरन्त आ जाये कि मैं जिस हदतक आगे बढ़ा हूँ, उस हदतक बढ़े बिना चारा नहीं था। जहाँ भी जाता हूँ, हिंसाके सिवाय कुछ दिखाई ही नहीं देता है। गहराईमें, लोगोंके हृदयमें हिंसा ही भरी हुई है---इतनी कि असहयोगको राष्ट्रीय पैमानेपर चालू रखना गुनाह माना जायेगा। लेकिन "राष्ट्रीय" असहयोग और "व्यक्तिगत" असहयोगमें भेद है। इसलिए व्यक्ति तो जिस हदतक असहयोग कर रहे थे, उस हदतक उसे जारी ही रखेंगे। सच तो यह है कि यदि वे उसे छोड़ देंगे तो उनका मूल असहयोग अर्थहीन कहा जायेगा।

सदस्यताके लिए कताईकी चर्चा बहुत हुई है। आपको लगता है कि मैंने बहुत ज्यादा दे दिया है, खादीको एक औपचारिकता-मात्र बना दिया है। लेकिन ऐसी कोई बात है नहीं। इतिहासपर नजर डालिए तो मालूम होगा कि हम बढ़कर कहाँसे-कहाँ आ गये हैं। पहले शुद्ध, मिश्र आदि अनेक प्रतिज्ञाएँ थीं। फिर मिलके कपड़ेको तिलांजलि दी गई और खादी आई। बादमें चरखा दाखिल हुआ और फिर स्वयंसेवकोंके लिए खादी अनिवार्य हो गई। आगे चलकर कताईका ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य हो गया और उससे भी आगे चलकर सबके कातनेपर जोर दिया गया। फिर कार्यकर्त्ताओंके लिए कताईको अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव हुआ और आज हमने कताईको सदस्यताकी शर्तमें रख दिया है।

हाँ, हर सदस्य नहीं कातेगा। लेकिन, आज जो कातते हैं वे इसे बन्द करनेवाले नहीं हैं। उलटे, आज जितने लोग कातते हैं, उनसे ज्यादा लोग ही कातेंगे। पैसा खर्च करके कितने लोग कतवा सकेंगे? इसलिए अधिकांश लोग तो अपना ही काता सूत भेजेंगे। जिन्होंने खुद दृढ़ निश्चय नहीं किया हो, उनसे हम जबरदस्ती कैसे कतवा सकते हैं? किन्तु, वे यदि दूसरोंसे सूत कतवाकर लायें तो इतनेसे ही हमें सन्तोष मानना चाहिए और तनिक बारीकीसे विचार करके देखें तो मानना पड़ेगा कि कांग्रेसके हर सदस्यको कातना चाहिए, ऐसा कोई सिद्धान्त तो नहीं ही था। मुझे यह भी बता देना चाहिए कि यह विचार बहुत-से लोगोंका नहीं, सिर्फ मेरा ही था। बल्कि अगर कहूँ कि यह मेरा आदर्श था तो अनुचित नहीं होगा। हाँ, बहुत समय पहले लंकासे एक भाईने मुझे पत्र लिखकर यह जरूर पूछा था कि हरएक सदस्यके लिए कताई अनिवार्य क्यों नहीं कर दी जाती। लेकिन, उस समय मैंने इस सुझावको असम्भव मानकर उसपर विचार भी नहीं किया। बादमें मुझे वह सम्भव लगा और मैंने उसे देशके सामने रखा। इसलिए, अगर मैंने कुछ छोड़ा है तो अपने आदर्शमें से, अपनी सोची बातमें से ही कुछ छोड़ना पड़ा है। बस, इतना ही।

आपको लगता है कि खादीको मैंने एक औपचारिकता-मात्र बना दिया। नहीं, यह आशंका भी निराधार है। खादी पहननेका प्रस्ताव एक बात है और खादी न पहने तो कांग्रेसका सदस्य न बन सके, यह दूसरी बात है। मत देनेका काम एक निश्चित काम है; इसलिए इसकी शर्त भी निश्चित होनी चाहिए, उसे दुःसाध्य नहीं होना चाहिए। कारपोरेशन के डिप्टी मेयर (उप-महापौर) श्री सुहरावर्दी कल सिरसे