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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पैरतक खादी पहनकर आये थे। वे नियमित रूपसे खादी नहीं पहनते, लेकिन कलका अवसर उन्हें खादी पहनने लायक लगा। अब ऐसे लोगोंसे मैं कैसे कहूँ कि आप अदालतमें भी खादीका ही चोगा पहनकर खड़े हों? मैं तो सिर्फ यह आशा ही रख सकता हूँ कि जब ये राष्ट्रीय प्रसंगोंपर खादी पहनेंगे तो खानगी मौकोंपर सिर्फ जिदके कारण विदेशी या मिलके कपड़े नहीं पहनने लग जायेंगे। जो खादी पहनते हैं, वे तो पहनते ही रहेंगे। जो कभी खादी नहीं पहनते, उन्हें भी अमुक प्रसंगों पर खादीके वस्त्रोंसे शुद्ध होकर कांग्रेस मन्दिरमें प्रवेश करनेका मौका मिलेगा। आज तो कांग्रेसमें जो प्रतिनिधि आते हैं, वे भी कहाँ खादी पहनते हैं? आज तो ९० प्रतिशत लोग खादीकी नहीं, बल्कि मिलकी ही धोती पहनकर कांग्रेसमें आते हैं। इस शर्तके दाखिल हो जानेपर ऐसा तो नहीं होगा।

फिर यह सवाल उठा कि स्वराज्यवादियोंके साथ एका क्यों किया जाये। गांधीजीने अपने लेखमें इस सवालको सविस्तार चर्चा की है।[१] उन्होंने अपनी उक्त दलीलको यह कहकर समाप्त कर दिया कि:

सरकारने स्वराज्यवादियोंको लोक-हितका खयाल करके पकड़ा है, यह बात तो मनको जँचती ही नहीं। मेरा यह विश्वास क्षण-क्षण बढ़ता जा रहा है और दृढ़से-दृढ़तर होता जा रहा है कि उन्हें तो स्वराज्यवादी दलको कुचलनेके लिए ही पकड़ा गया है।

उपसंहार करते हुए उन्होंने कहा:

मुझे विश्वास है कि मेरा त्याग, 'यंग इंडिया' में मैंने अपने जो आदर्श बताये हैं, उनमें से बहुत थोड़ेका ही त्याग है। मैंने किसी तत्त्व या सिद्धान्तका त्याग नहीं किया है। लेकिन अगर आपको ऐसा लगे कि मैंने तत्त्वका त्याग किया है, आपको ऐसा लगे कि मेरा त्याग अनुचित है तो आप मेरा पूरा विरोध करें। मैंने श्यामबाबूको अपना उद्देश्य बताया था। आज मेरा उद्देश्य समस्त अव्यवस्थाको मिटाकर सुव्यवस्था कायम करना है, विवादको मिटाकर मेल-जोल कराना है, निष्प्राण जनताको एकताके सूत्रमें बाँध, उसमें शक्ति और निर्भयता लाना है। अगर मैंने कोई ऐसा दल खड़ा किया हो जो सिर्फ अन्ध-श्रद्धाको ही पोषण करता हो तो उसमें देशका अहित ही है। आम लोगोंको मैं क्षमा कर सकता हूँ, लेकिन आप तो लेखक, वक्ता और बहस-मुबाहिसा करनेवाले लोग ठहरे। आपसे अपनी बुद्धि जैसा कहे, वैसा ही करें। ऐसा नहीं कि मुझसे भूल नहीं हो सकती। हाँ, मैं आपसे ज्यादा अनुभवी हूँ, इसलिए मैं शायद कम भूल करूँ। लेकिन सम्भव है कि जो कभी-कभी ही भूल करता हो वह जब भूल करे तो भयंकर भूल ही करे। सम्भव है कि स्वराज्यवादियों के कार्यको मैं अनुचित महत्त्व देता होऊँ। हिन्दू-मुस्लिम एकतापर जरूरतसे ज्यादा जोर देता होऊँ। इस हालतमें आप बेशक कोई नया रास्ता चुन लें और उसीका अनुसरण करें। ऐसा करके आप लोग अपने-आपको सम्मान देंगे । त्याग दो प्रकारके होते

  1. देखिए. "समझौता" और "समझौतेपर टिप्पणियाँ", १३-११-१९२४।