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अपरिवर्तनवादियोंके साथ बातचीत

हैं। एक तो है अपने व्यक्तिगत मतका त्याग और दूसरा है सिद्धान्तका त्याग। स्वर्गीय गोखले कहा करते थे कि जनकल्याणके लिए अपने व्यक्तिगत मतका त्याग तो किया जा सकता है, लेकिन सिद्धान्तका नहीं। इसे ध्यानमें रखकर आप खुशी-खुशी जो रास्ता चाहते हों, अख्तियार करें।

इसके बाद खूब सवाल-जवाब हुए।

प्रश्न: अब कांग्रेस गरीबोंकी नहीं, पैसेवालोंकी ही रहेगी। कारण, पैसेवाले तो चाहे जहाँसे सूत खरीद लेंगे।

उत्तर---नहीं, वह पूरी तरह गरीबोंकी ही रहेगी। गरीबोंको रुई देनेका काम कांग्रेसका होगा और मेहनत देनेका काम गरीबोंका। सामान्य वर्गके लोग भी सूत खरीदेंगे नहीं, बल्कि स्वयं कातेंगे। जिनके लिए कातना अरुचिकर होगा और जो आलसी होंगे, वे भले ही दूसरोंसे कतवा लें।

आपने इस दुष्ट सरकारके साथ असहयोग आरम्भ किया और अब उसे धीरे-धीरे छोड़ते चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, अब तो आप दुष्टता के साथ सहयोग करनेकी भी सीख दे रहे हैं। स्वराज्यवादियोंने ऐसे-ऐसे प्रपंच और झूठ चलाये हैं कि उनके साथ सहयोग कैसे किया जा सकता है?

मैंने ऐसा तो कभी कहा ही नहीं कि आप सब जगह असहयोग करें। असहयोग तो वहीं करना चाहिए जहाँ असहयोग न करनेका मतलब प्रतिपक्षीके दुष्टतापूर्ण कार्यमें भाग लेना हो। आप जो आक्षेप कर रहे हैं, वे अगर सही हों तो भी हमें उनके झूठमें तो हिस्सेदार बनना नहीं है और आप यह भूल जाते हैं कि हमने सरकारके साथ तीस वर्षतक सहयोग करनेके बाद ही असहयोगका सहारा लिया। स्वराज्यवादियों अथवा अपने भाइयोंके साथ असहयोग करनेका तो कोई प्रसंग ही नहीं आया। हमने उनके साथ इतना सहयोग ही कहाँ किया है कि उनके साथ असहयोग कर सकें? आज तो हिन्दुओं और मुसलमानोंके हृदयको बदलना ही मेरा काम है। मैं सबसे इसी काममें मदद माँगता हूँ। उनका हृदय परिवर्तन हो जाये तो तुरन्त स्वराज्य प्राप्त करनेकी मेरी आशा कई गुना बढ़ जायेगी।

आप तो नरमदलवालोंको भी लेना चाहते हैं और हिंसावादियोंके लिए भी रास्ता खोल देना चाहते हैं। यह क्या है और इन सबके बीच मेल कैसे बैठ सकेगा?

मुझे तो सत्यके लिए ही जीना है और सत्यके लिए ही मरना है। मैं चाहता हूँ कि लोग और कुछ नहीं तो कमसे-कम सच्चे और ईमानदार तो बनें। मैं जो आदर्श स्थिति चाहता हूँ उसे यदि सबसे स्वीकार कराऊँ तो उससे ईमानदारी तो नहीं बढ़ेगी, लेकिन पाखण्ड पैदा होगा। आज मैंने जिस प्रस्तावपर सही की है, उससे प्रामाणिकता बढ़ेगी। मैं सिर्फ इतना ही चाहता हूँ कि लोग छोटीसे-छोटी बातकी ही प्रतिज्ञा करके उसका पूरी तरह पालन करें। इसीलिए मैं कहता था कि कांग्रेसके संकल्पमें से "शान्तिपूर्ण और उचित" शब्द निकाल दिये जायें। अहिंसाकी प्रतिज्ञा लेकर हिंसा के रास्तेपर चलनेसे क्या यही अच्छा नहीं है कि अहिंसाकी प्रतिज्ञा ही न ली जाये? मेरे आदर्श अगर देशको पसन्द हों तो वह उन्हें स्वीकार करे; अगर