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२६०. पत्र: मुहम्मद अलीको

११ नवम्बर, १९२४

प्रिय भाई,

महादेव तो मुझे 'नवजीवन' के प्रबन्धकका पत्र दे ही नहीं रहा था, लेकिन मेरे जोर देनेपर दे दिया। उसे मैंने पढ़ लिया है। मेरे मनको गहरी चोट लगी, बहुत अपमानितसा महसूस किया। मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी कि 'नवजीवन' की ओरसे आपको ऐसा भी पत्र भेजा जा सकता है। मैं किसी तरह अपनेको इस पत्रकी जिम्मेदारीसे अलग नहीं कर सकता। लेकिन मैं देख रहा हूँ कि इस तरहकी अपूर्णताका बोझ मुझे जीवन-भर ढोना ही पड़ेगा। अपूर्ण व्यक्ति जिन्दगीके साथ मानो जुआ खेलता रहता है और इस तरह बराबर नुकसान उठाता रहता है। यही कारण है कि संसारके कुछ श्रेष्ठतम व्यक्तियोंने भी सबसे नाता तोड़कर सिर्फ अपने स्रष्टाके सान्निध्यमें ही रहना पसन्द किया है। स्वामीसे सम्बन्ध तोड़ लेनेको न मेरा जी चाहता है, न मुझमें उतनी हिम्मत है। वह भला आदमी है; बहादुर और ईमानदार है। जाति अथवा धर्मको लेकर उसके मनमें कोई पूर्वग्रह नहीं है। लेकिन उसमें कुछ-एक चीज ऐसी हैं जिनके कारण कभी-कभी वह दूसरोंको चोट पहुँचानेवाले काम कर जाता है। आप मेरी खातिर उसे क्षमा कर दें और यदि क्षमा कर दें तो आप मुझे यह भी अवश्य लिख भेजें कि आपके विचारसे 'नवजीवन' आपका कुल कितनेका देनदार है। इससे मैं बहुत-सी परेशानियोंसे बच जाऊँगा।

यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि जब हम लोग मिलते हैं तब तो बस राजनीति और दर्शनकी ही चर्चाओंमें डूब जाते हैं। चर्चाके लिए हमें घरेलू मामले बड़े मामूली लगते हैं। लेकिन मेरे जीवनमें उनका स्थान प्रमुख है। वे मुझे अपनी लाचारियाँ पहचानना सिखाते हैं।

आपका,
मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]

महादेव देसाई की हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई

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