२६१. पत्र: फूलचन्द शाहको
कार्तिक सुदी १५ [११ नवम्बर, १९२४][१]
आपके पिछले पत्रका मुझे स्मरण है। मैं खुद ही आपको लिखूँगा, इस आशासे मैंने महादेवसे पत्र लिखनेके लिए नहीं कहा। इसी बीच मेरा कार्यक्रम अनियमित हो गया और बादमें मैं कलकत्ता ही चला गया। आपका पत्र ऐसा था कि उसका उत्तर तुरन्त भेज देना चाहिए था। अब तो आपको यही सन्तोष दे सकता हूँ कि आपसे क्षमा माँग लूँ। वल्लभभाईको लिख रहा हूँ कि वे आपको ५,००० रुपये दे दें। जैसा कि आप लिखते हैं, इतने पैसेमें आपका काम चल जायेगा। मेरा खयाल है कि मैं इस महीनेके आखिरी हफ्तेमें आश्रम पहुँच ही जाऊँगा। आप उस समय मुझसे मिलियेगा, ताकि मैं आपको सब-कुछ और अच्छी तरह समझा सकूँ।
हम शिवलालभाईकी जमीनके बारेमें भी बातचीत करेंगे और वढवानकी पाठशालाको बाहरी सहायतासे चलाना कहाँतक उचित है, इस नैतिक प्रश्नपर भी विचार करेंगे। यह प्रश्न अनेक पाठशालाओंपर लागू होता है।
बापूके अशीर्वाद
गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० २८२३) से।
सौजन्य: शारदाबहन शाह
२६२. पत्र: लक्ष्मीको
कार्तिक सुदी १५ [११ नवम्बर, १९२४]
तुम्हारा दूसरा पत्र मिल गया था। तुम्हारी लिखावटमें अभी और सुधार होना चाहिए। मुझे और दूदाभाईको नियमित रूपसे पत्र लिखने की आदत डालो।
आशा है, प्रसन्न होगी। इसी महीनेकी [अंग्रेजीके अनुसार] आखिरी तारीख तक वहाँ पहुँचनेकी आशा करता हूँ।[४] तुम कातने और प्रातःकाल जल्दी उठनेके