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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लेकिन एकताकी और देशकी खातिर वे उसे पी गये। इसके लिए उनका जितना भी अभिनन्दन किया जाये, थोड़ा होगा।

यह समझौता स्वराज्यवादियोंको अपरिवर्तनवादियों की बराबरीकी स्थिति में ला रखता है। अगर मत लेनेकी झंझट और उससे जुड़ी दूसरी तमाम परेशानियोंसे बचना था तो इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं था। अहिंसाका मतलब है---जहाँतक अपने सिद्धान्तोंपर आँच नहीं आती हो वहाँतक दूसरोंकी अधिकसे-अधिक सुनना और मानना। स्वराज्यवादियोंका कहना है कि उनका दल एक वर्धमान दल है। इस बातसे तो कोई इनकार नहीं कर सकता कि सरकारपर उनका कुछ असर हुआ है। उस असरके महत्त्वके बारेमें मतभेद हो सकता है, लेकिन इस तथ्यमें तो सन्देहकी कोई गुंजाइश नहीं है कि उनका असर हुआ है। उन्होंने संकल्प और दृढ़ता दिखाई है, अनुशासन और संगठनका परिचय दिया है और अपनी नीतिको कार्यान्वित करनेमें वे सरकारसे संघर्ष मोल लेनेकी सीमातक भी जानेमें नहीं झिझके हैं। अगर कौंसिल-प्रवेशकी वांछनीयताको एक बार स्वीकार कर लिया जाये तो मानना पड़ेगा कि भारतीय विधान-सभाओंमें उन्होंने एक नई भावना भर दी है। मुझ-जैसे लोगोंके लिए यह बात खेदजनक अवश्य है कि उनकी इसी चमक-दमकसे राष्ट्रका ध्यान अपने-आपसे हट जाता है, लेकिन जबतक हमारे योग्यतम व्यक्तियोंको कौंसिल-प्रवेशमें विश्वास है तबतक तो हमें उसका अच्छेसे-अच्छा उपयोग करना ही चाहिए। यद्यपि मैं एक कट्टर अपरिवर्तनवादी हूँ, फिर भी मुझे न केवल उनके दृष्टिकोणके प्रति सहिष्णुता बरतनी चाहिए और उनके साथ मिल-जुलकर काम करना चाहिए, बल्कि जहाँ-कहीं सम्भव हो, उनके साथ अपने सम्बन्ध मजबूत भी करने चाहिए।

यदि अपरिवर्तनवादी लोग महत्त्वपूर्ण मतभेदोंका निबटारा मतदानके द्वारा नहीं करना चाहते तो वे कांग्रेसका काम पारस्परिक सहमति और सहिष्णुताके आधारपर ही चला सकते हैं, बशर्ते कि लड़नेकी इच्छा न होनेके कारण वे कांग्रेसके नियंत्रणसे अपने हाथ पूरी तरह खींच लें। यह बात सभी मानते हैं कि दोनोंमें से किसी भी दलका काम एक-दूसरेके बिना नहीं चल सकता। देशमें दोनोंका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। लिबरलों और बेसेंट समर्थकोंके अलग हो जानेसे कांग्रेस कमजोर हो गई थी। उस समय दरार पड़ना अवश्यम्भावी हो गया था, क्योंकि वे सब सिद्धान्ततः असहयोगके विरुद्ध थे। अगर सम्भव हो तो अब आगे हमें और दरार नहीं पड़ने देनी चाहिए। इसलिए गम्भीरतापूर्वक सोचे-समझे बिना सिर्फ दृष्टिकोणके भेदको हठपूर्वक सिद्धान्तका भेद मानकर उसपर हमें झगड़ना नहीं चाहिए।

यदि असहयोग कार्यक्रम स्थगित कर दिया जाता है---और मुझे विश्वास है कि कर दिया जाना चाहिए---तो स्वभावतः स्वराज्य दलकी गतिविधियोंपर अँगुली उठानेका कोई कारण नहीं रह जाता। यह कहना अथवा इस बहसमें पड़ना बेकार है कि अगर कांग्रेसवालोंने कौंसिलोंकी बात कभी सोची ही नहीं होती तो क्या होता। हमें तो स्थितिपर, जैसी वह आज है, उसी रूपमें विचार करना है और फिर या तो अपने-आपको उसके अनुकूल ढालना है या अगर सम्भव हो तो उसीको अपने अनुकूल बनाना है।