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समझौतेपर टिप्पणियाँ

संयमी बना देंगे। किन्तु तब हम भद्य और मादक वस्तुओंका सेवन करनेवालोंको दण्डित तो कर सकेंगे और शराब और अफीमकी सभी दुकानों तथा अड्डोंको बन्द करके मादक वस्तुओंके सेवनको यथासम्भव कठिन तो बना सकेंगे और यह सब करना भी चाहिए।

क्या यह जोर-जबरदस्ती है?

कांग्रेसके प्रत्येक सदस्यके लिए हाथ-कताई अनिवार्य बनानेके विरुद्ध श्री स्टोक्सका प्रबल प्रतिवाद पाठकोंने पढ़ा होगा। मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की रक्षाके लिए उनके मनमें इतना उत्साह है कि वे किसी चीजके स्वेच्छासे स्वीकार किये जाने और जोर-जबरदस्तीके बलपर उसके थोपे जानेके बीच कोई अन्तर नहीं देख पाते। जोर-जबरदस्तीका मतलब तो यह होता है कि विरोधकर्ताओंको जुर्माने या जेलके भयसे उसी बातको माननेपर विवश होना पड़े, जिसका वे विरोध करते हों। जिस निगमके वे सदस्य हैं, उसके बाहर रहकर भी वे उस बाध्यता अथवा दण्डसे बच नहीं सकते। किन्तु जब कोई व्यक्ति कांग्रेस-जैसी किसी संस्थामें, जिसमें शामिल होना-न-होना व्यक्तिकी अपनी मर्जीपर निर्भर करता है, प्रवेश करता है, तब वह स्वेच्छासे ही ऐसा करता है और स्पष्ट या अस्पष्ट रूपसे स्वीकार कर लेता है कि वह संस्थाके नियमोंका पालन करेगा। बहुमतकी इच्छाके आगे अल्पमतका झुकना सामान्यतः इन नियमोंमें शामिल रहता है। प्रत्येक सदस्यका प्रत्येक कार्य उसकी स्वेच्छापर निर्भर है, यह तो इसी बातसे स्पष्ट है कि जब भी बहुमत कोई ऐसा नियम पारित करे जो उसके अन्तःकरणके अनुकूल न हो तो वह संस्थासे अपना सम्बन्ध विच्छेद कर सकता है। श्री स्टोक्सका तर्क समस्त निगमित या सामूहिक स्वशासनके विरुद्ध पड़ता है। प्रत्येक मताधिकारके साथ कुछ शर्तें जुड़ी रहती हैं और हर प्रकारके सशर्त मताधिकारका कुछ लोग विरोध तो करते ही हैं। तब क्या विरोधी बहुमत द्वारा पारित शर्तोंको बहुमत द्वारा जोर-जबरदस्तीके बलपर थोपा हुआ कह सकते हैं? स्पष्ट है कि नहीं, क्योंकि यदि वे वैसा कहें तो फिर कोई भी सामूहिक कार्यवाही हो ही नहीं सकती।

१९२० में जब कांग्रेसने नई नीति (क्रीड) स्वीकार की थी तब एक अल्पमत था, जिसने सिद्धान्तके नाते उसका विरोध किया था और इसलिए जब वह बहुमतसे पारित कर दी गई तो वह कांग्रेससे अलग हो गया था। पुरानी नीतिके अधीन तो और अधिक व्यक्ति कांग्रेसके बाहर रह जाते थे, क्योंकि वे अन्तःकरणसे उसका अनुमोदन नहीं कर पाते थे। मेरी राय यह है कि दोनों ही स्थितियोंमें बहुमतको नियम पारित करनेका अधिकार था। पहली स्थितिमें शर्तें लगाना समझदारीका काम था और दूसरी स्थितिमें उनका शिथिलीकरण नासमझीका काम था, यह तो अपनी-अपनी रायकी बात है। और इसलिए प्रस्तुत प्रस्ताव, कताईको कांग्रेसके मताधिकारकी एक शर्त बनानेकी दृष्टिसे एक ऐसी अविवेकपूर्ण नीति तो हो सकता है, जो मेरे सोचे हुए उद्देश्यको ही विफल बना दे, किन्तु मेरा कहना है कि इसमें कोई सहज बुराई नहीं है, सिद्धान्ततः भी इसमें कोई दोष नहीं है और इसे जोर-जबरदस्ती कहना तो अनजाने में

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