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२८९. पत्र: लाजपतरायको

१७ नवम्बर, १९२४

प्रिय लालाजी,

आपका पत्र मिला और भरूचा तथा लाला अमीरचन्दकी मार्फत भेजे सन्देश भी। मैं आपकी माँग पूरी नहीं कर रहा हूँ; आशा है, इसके लिए मुझे क्षमा करेंगे। अपनी असमर्थताके कारण मैंने अब सार्वजनिक रूपसे बता दिये हैं। कुछ ऐसे क्षण जरूर होते हैं, जब स्वास्थ्यको खतरेमें डालना, बल्कि उसकी बलि चढ़ा देना भी जरूरी हो जाता है। लेकिन, मुझे नहीं लगा कि यह वैसा ही क्षण है। मैं अच्छी तरह खाता-पीता हूँ, अच्छी नींद सोता भी हूँ; कुछ दूर घूम भी लेता हूँ, बंगालकी यात्रा कर सकता हूँ और बम्बईकी यात्रा तो कर ही रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि रावलपिंडीकी यात्रासेमें मर नहीं जाता और फिर सिपाहीके लिए तो रण-क्षेत्रकी मृत्यु सदा स्वागत करने लायक होती है। लेकिन, क्या उससे कुछ लाभ होता? मैं अपनी मर्यादा जानता हूँ। मेरा तरीका तो रोगी अंगको शल्य-चिकित्सा द्वारा निकाल देनेका है, दवा-दारूके जरिए रोगके शमन करनेका नहीं। पर शरणार्थी लोग इस समय ऐसे ऑपरेशनके लिए तैयार नहीं होंगे; मुझे तो यही आशंका है; और यदि वे तैयार भी हों तो फिर चन्द दिनोंमें कुछ बनने-बिगड़नेवाला नहीं। ये थोड़े-से दिन तो शायद उन्हें ऐसी चिकित्साके लिए राजी करनेमें ही लग जायेंगे। फिलहाल तो इतना ही काफी होगा कि उनकी देख-भाल की जाये, उन्हें चिन्तन और शोधनके लिए थोड़ा अवसर दिया जाये, और थोड़ी पुष्टिकारक दवा दी जाये। रावलपिडीके बारेमें इतना ही[१]...

[ अंग्रेजीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई

२९०. पत्र: अमीरचन्द सी० बम्बवालको

[ १८ नवम्बर, १९२४ से पूर्व ][२]

प्रिय मित्र,

हालाँकि मेरा खयाल है कि हम लोगोंकी भेंट नहीं हुई है, फिर भी पण्डित मालवीयजीके जरिये मैं आपको जानता हूँ। वे आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे और मुझको बता रहे थे कि आप कितने बहादुर, ईमानदार और आत्मत्यागी हैं। उन्होंने यह भी बताया कि शरणार्थियोंकी सेवा करनेमें आपने अपने स्वास्थ्यकी तनिक भी

  1. साधन-सूत्रमें पत्रका शेषांश नहीं दिया गया है।
  2. यह तिथि गांधीजीके बम्बई रवाना होनेकी तिथिके आधारपर ली गई है।