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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

परवाह नहीं की। लेकिन इस पत्रका उद्देश्य आपको और आपकी मार्फत शरणार्थियोंको यह बताना है कि अभी जो मैं रावलपिंडी नहीं आ सकता, इसके लिए मुझे कितना दुःख है। मैं तो कोहाट जाना चाहता था, लेकिन फिलहाल तो यह योजना विफल ही हो गई और इसलिए मुझे रावलपिंडी जानेकी जल्दी नहीं रही। मुझे मालूम था कि पण्डितजी आपके निकट सम्पर्कमें हैं और साथ ही मैं यह भी जानता था कि जबतक मैं ठीक किस्मके लोगोंको साथ लेकर कोहाट न जाऊँ तबतक समझौता करानेमें किसी प्रकार सहायक नहीं हो सकता। लेकिन देखता हूँ, रावलपिंडीमें भी मेरी उपस्थिति आवश्यक समझी जाती है, पर मेरा वहाँ जाना सम्भव नहीं हो पाया। मैं अवसर मिलते ही आ जाऊँगा और दिसम्बरके पहले हफ्तेतक तो अवश्य ही आ जाऊँगा। अभी बम्बई जानेमें मैं देर नहीं कर सकता। इस बीच मैं आपको यह बता देना चाहता हूँ कि इस परिस्थितिके विषयमें मेरे क्या विचार हैं। जाहिर है कि मेरा यह विचार इतनी दूरसे परिस्थितिको जैसा मैं समझ पाया हूँ, उसीपर आधारित है। कोहाटकी समस्याको अखिल भारतीय समस्या मानकर चलना चाहिए। कारण, शरणार्थियोंका क्या होता है, इस बातमें भारत के सभी लोगोंकी दिलचस्पी है। इसलिए शरणार्थियोंको चाहिए कि वे सरकारको सूचित कर दें कि उन्हें हिन्दू और मुसलमान नेताओंसे जो सलाह मिलेगी, उसीके मुताबिक वे अपना रास्ता चुनेंगे और इसलिए सरकारको उन्हें आमन्त्रित करना और उन्हींके जरिये मामलेका निपटारा करवाना चाहिए। आशा है, शरणार्थी लोग गिरफ्तारी आदिकी धमकियोंसे डर नहीं जायेंगे। मुझे उम्मीद है कि कल या परसों पण्डितजी और लालाजी आपके बीच होंगे। आप चाहें तो यह पत्र उनके सामने रख दें और अगर वे मेरे विचारसे सहमत न हों तो आप सब लोग इसपर कोई ध्यान न दें। अगर पण्डितजी और लालाजी सहमत न हों तो मेरे विचार शरणार्थियों के सामने रखने की भी कोई जरूरत नहीं।

हृदयसे आपका,

[ अंग्रेजीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई