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कसौटीपर

फिर औरोंके बारेमें क्या कहा जाये? मैं कभी भी डाँवाडोल नहीं हुआ हूँ। असहयोगमें मेरा विश्वास आज भी उतना ही ज्वलन्त है, जितना कि हमेशा रहा है। कारण, तीस सालसे भी अधिक समयसे यह मेरे जीवनका एक सिद्धान्त रहा है। परन्तु मैं अपना निजी सिद्धान्त औरोंपर नहीं ला सकता, एक राष्ट्रीय संस्थापर तो हरगिज नहीं। तो मैं सिर्फ इतना ही कर सकता हूँ कि राष्ट्रको उसकी सुन्दरता और उपयोगिताका कायल करने की कोशिश करूँ। यदि मैं राष्ट्रके मनकी थाह लेते हुए यह देखूँ कि जहाँतक कांग्रेस उसके मनोभावको प्रकट करती है उसे तनिक सुस्ता लेनेकी जरूरत है तो मुझे रुकने को कहना ही पड़ेगा। हो सकता है कि मैं कांग्रेसकी मनोदशाका अनुमान लगानेमें गलती कर बैठूँ। लेकिन जिस दिन ऐसा होगा, कांग्रेसमें मेरा कोई वजन ही नहीं रह जायेगा। ऐसा हो भी तो यह कोई बहुत-बड़े संकटकी बात नहीं होगी। लेकिन अगर राष्ट्र अन्य उपायोंसे प्रगति कर रहा हो और मैं अपनी हठधर्मिताके कारण उसके मार्गमें बाधा बनकर खड़ा हो जाऊँ तो यह अवश्य ही बहुत बड़े संकटकी बात होगी। हाँ, अगर ये उपाय निश्चित रूपसे दुर्वृत्तिपूर्ण और हानिकर हों तब तो मुझे विरोध करना ही पड़ेगा। उदाहरणके लिए जो वास्तवमें हिंसात्मक हों, ऐसे उपायोंके खिलाफ तो अकेला होनेपर भी मुझे उठना ही पड़ेगा। लेकिन मैंने यह स्वीकार किया है कि अगर राष्ट्रकी इच्छा हो तो उसे वास्तविक हिंसाके जरिये भी स्वराज्य प्राप्त करनेका अधिकार है। लेकिन उस हालतमें मेरी जन्मभूमि होते हुए भी यह वह देश नहीं रह जायेगा, जिससे मुझे प्रेम होगा---ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार यदि मेरी माता सन्मार्ग छोड़ दे तो उसपर मैं गर्व नहीं करूँगा। लेकिन स्वराज्य दल तो एक व्यवस्थायुक्त प्रगति चाहनेवाला दल है। हो सकता है कि वह मेरी तरह अहिंसाकी कसमें न खाता हो, पर अहिंसाको वह एक कार्य-साधक नीति के तौरपर अवश्य मानता है और हिंसाका विरोध करता है, क्योंकि वह उसे हानिकर न भी मानता हो तो भी अनुपयोगी अवश्य मानता है। काग्रेंस में उसका एक प्रमुख स्थान है। न जाने, पर यह सम्भव हो सकता है कि यदि परीक्षा की जाये तो उसमें इसकी स्थिति, शायद, सबसे प्रबल सिद्ध हो। मेरे लिए यह बिलकुल आसान है कि मैं कांग्रेससे हट जाऊँ और उस दलको कांग्रेसका कार्य-संचालन करने दूँ। लेकिन ऐसा तो मैं उसी हालतमें कर सकता हूँ और करूँगा जब कि मैं देख लूँगा कि मेरा और उसका किसी बात में मेल नहीं बैठता। परन्तु जबतक मुझे उसके उद्धारकी जरा भी आशा है तबतक मैं उसका पल्ला उसी तरह पकड़े रहूँगा जिस तरह बालक अपनी माताकी गोदसे चिपका रहता है। मैं उससे अपना सम्बन्ध तोड़कर अथवा उसकी भर्त्सना करके या कांग्रेससे अलग होकर उसको कमजोर हरगिज नहीं बनाऊँगा।

मैंने "उद्धार" शब्दका प्रयोग बुरे भावसे नहीं किया है। मेरे पास भी शुद्धि और तबलीगकी अपनी विधि है। दुनियाने अबतक ऐसी उत्तम विधि नहीं देखी है। जिस जमीनपर मैं खड़ा हूँ, उसका और अपने बलका ज्ञान रखते हुए मैं अपने-आपको इस बात के लिए स्वराज्य दलके सुपुर्द करता हूँ कि वह मुझपर जितना चाहे