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एककी सो देशकी

लिए आधा घंटा चरखा चलाना हमें भारी पड़ता है, क्योंकि हममें अभी एक-दूसरेके प्रति भ्रातृ-भावना नहीं है।

यदि हम सब लोग विदेशी कपड़ेका त्याग कर दें और चरखा चलाकर भारत की कपड़ेकी जरूरत पूरी कर दें तो इस देशमें इस सल्तनतका स्वार्थ बहुत हदतक समाप्त हो जाये। यह जानते हुए भी हममें से बहुत-से लोग कातनेसे इनकार करते हैं; क्योंकि हमारी भ्रातृ-भावना इतनी तीव्र नहीं हुई है। सच पूछिए तो बहुत-से शहरोंमें हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच भ्रातृ-भावना है ही नहीं। ऐसी हालतमें करोड़ों कण्ठोंसे यह घोष निकल ही नहीं सकता कि 'यह हमारा देश है'। और जबतक ऐसी स्थिति नहीं आती तबतक स्वराज्यकी आशा रखना बेकार है। जिस रास्तेसे स्वराज्य मिलेगा, उसी रास्तेसे बंगालमें चल रही राजनीति भी बन्द हो सकती है, यह बात हम सब समझ सकते हैं। अराजकतावादियोंकी अराजकता स्वराज्यके लिए है। वह निरर्थक ही सही। मगर अराजकताके रोगका कारण स्वराज्यका अभाव ही है। सरकार की अराजकताका भी वहीं कारण है। सरकार अपनी सत्ता भरसक छोड़ना नहीं चाहती। यदि स्वराज्य हो तो ऐसी अराजकता नहीं हो। इसीसे मैं कहता हूँ कि यदि चरखा स्वराज्यका साधन है, यदि हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य स्वराज्यका साधन है तो सरकारकी दमन-नीति दूर करनेका साधन भी वही है।

यदि हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच भ्रातृ-भावना नहीं है तो अस्पृश्य हिन्दुओं और दूसरे हिन्दुओंके बीच भी यह भावना कहाँ है? भाई-भाईके बीच अस्पृश्यता हो ही नहीं सकती। एक भाई अच्छे-अच्छे पकवान खायें और दूसरा उसकी जूठन, यह नहीं हो सकता। फिर भी अस्पृश्यता दूर करनेमें कितनी कठिनाइयाँ पेश आती हैं, यह तो अस्पृश्यता-निवारणके काममें लगे हुए लोग ही जानते हैं।

जहाँ ऐसी स्पष्ट स्थिति मौजूद है, जहाँ रोग और उसके इलाजका ज्ञान है, वहाँ उस इलाजको काममें न लाना और अधीर होकर दूसरे इलाज की खोज में पड़ना, यह तो रोगीका नाश करनेके समान है।

कुछ लोग कहते हैं---लोग तो धूम-धड़ाका चाहते हैं। धूम-धड़क्केसे कुछ काम भले ही बनता हो, परन्तु दुनियामें आजतक किसी भी देशने सिर्फ इसीके बलपर आजादी हासिल नहीं की है। हिन्दुस्तान तो कभी भी हासिल नहीं कर सकता। धूम-धड़क्केको छोड़कर अपने धंधेमें जुट जाना ही हमारा असली फर्ज है। जो लोग इस बातको जानते हैं, वे यदि औरोंका मुँह न देखते रहकर अपना-अपना फर्ज अदा करने लग जायें तो हम उस हदतक स्वराज्यके नजदीक पहुँच चुके, ऐसा माना जायेगा। इसीलिए, देशमें और लोग चाहे जो करते रहें, जो इस बातको जानते हैं वे यदि अपने कर्त्तव्यमें दृढ़ रहेंगे तो सारा देश उनके रास्ते चलेगा, इसमें मुझे जरा भी शक नहीं है। कारण, इस देशकी मुक्तिका कोई दूसरा उपाय नहीं है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २३-११-१९२४