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विद्यार्थी क्या करें?

बनाये रखनेके लिए वह आवश्यक प्रयत्न अवश्य करेगी और वर्तमान पाठशालाओंको कायम रखेगी। असहयोग 'स्थगित' ही रखना है, उसे कोई सदाके लिए बन्द नहीं कर देना है। उसे फिरसे आरम्भ करनेपर क्या सरकारी स्कूलोंमें गये विद्यार्थी पुनः उनका त्याग कर देंगे? असहयोगके दूसरे पहलुओंके सम्बन्धमें चाहे जो परिवर्तन हों, लेकिन राष्ट्रीय पाठशालाओंको चलते ही रहना चाहिए, वे चलती रहेंगी भी, किन्तु अगर वे न चल पाईं तो जनताकी नाक कट जायेगी।

इतना ही नहीं, कालक्रमसे राष्ट्रीय पाठशालाओंमें वृद्धि भी होनी चाहिए। स्वराज्य मिलनेपर असहयोगी वकील फिरसे अदालतोंमें वकालत शुरू कर देंगे, किन्तु असहयोगी पाठशालाएँ तो तब भी कायम ही रहेंगी। दूसरी पाठशालाएँ ही इन पाठशालाओंकी शिक्षा-पद्धतिका अनुकरण करेंगी। ऐसा नहीं कि असहयोगी पाठशालाएँ पिछली सरकारी पाठशालाओंका अनुकरण करेंगी। यह स्वराज्य चाहे आज न मिले, चाहे उसे पानेमें युग बीत जायें, लेकिन जब स्वराज्य आयेगा और उस समय जो असहयोगी पाठशालाएँ जीवित पाई जायेंगी, वे आदर्श-रूप होंगी और जनता उनपर न्यौछावर हो जायेगी।

अतएव, मुझे कहना होगा कि असहयोगको स्थगित रखनेके मेरे सुझावसे जहाँ-जहाँ लोगोंमें घबराहट पैदा हो गई है, वहाँ-वहाँ मुझे असहयोग के प्रति अश्रद्धा दिखाई देती है। जिसे अपने सिद्धान्त या कार्यके प्रति श्रद्धा होगी, वह दूसरोंकी अश्रद्धासे या दूसरोंके अलग हो जानेसे क्यों डरेगा, क्यों घबरायेगा, क्यों अपने निश्चयसे डिगेगा? श्रद्धालु लोगोंमें दूसरोंकी अश्रद्धा देखकर दुगुनी दृढ़ता आ जाती है। जिस प्रकार रक्षकोंसे सुरक्षित व्यक्ति उन रक्षकोंके हट जानेपर असावधानी छोड़कर सावधान हो जाते हैं, उसी प्रकार श्रद्धालु व्यक्ति अपने साथियोंको भागते देखकर दृढ़तापूर्वक अकेले ही सिंहकी भाँति जूझते हैं और पर्वतके समान अडिग बने रहते हैं।

फिर, यह तो सच ही है कि विद्यार्थियोंने बहुत बलिदान किया है। लेकिन, बलिदानके मर्मको समझना जरूरी है। यज्ञ करनेवाला दूसरोंकी दयाका भूखा नहीं रहता। उसकी स्थिति दयनीय नहीं होती, वह तो स्तुत्य होती है। जो यज्ञ अनिच्छापूर्वक या दुःखी मनसे किया जाये वह यज्ञ, यज्ञ नहीं है। बलिदानीके मनमें तो उल्लास, हर्ष और उमंग होती है। बलिदान करनेवाला तो और अधिक बलिदान करनेकी शक्तिकी कामना करता है, वह त्यागसे घबराता नहीं, क्योंकि उसके लिए तो त्यागमें ही सुख है। उसे यह विश्वास रहता है कि अभी जो चीज कष्टकर प्रतीत हो रही है, वह अन्तमें सुखद ही सिद्ध होगी। जिन्होंने असहयोग किया है, उन्होंने कुछ खोया नहीं है, पाया ही है। जो अपनी गन्दगी निकाल देता है, वह शुद्ध हो जाता है। जो त्याज्य है, उसे त्यागना तो अपने सिरका बोझ ही हलका करना है। जो नित्य आधे घंटेतक चरखा चलाता है, वह बलिदान करता है अर्थात् आलस्य और स्वार्थका त्याग करता है, क्योंकि ये दोनों त्याज्य हैं। जिसने सरकारी स्कूल छोड़ा है, उसने बलिदान किया है, क्योंकि इस तरह उसने त्याज्य वस्तुका त्याग किया है। त्याग करते समय उसका मुँह उतरा नहीं होगा, बल्कि उसके मुखमण्डलपर आनन्दकी आभा छिटकी हुई होगी।