पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/४०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३७२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मीराबाई राजभोगका त्याग करके नाची थीं और राजभोगके बीच रहकर रोई थीं। हमारी दृष्टिसे वह भारी बलिदान था। मीराबाईके लिए त्याग ही भोग था---आनन्द का विषय था। सुधन्वा उबलते तेलके कड़ाहेमें नाच-नाचकर नारायण नामका जाप कर रहा था। इसीसे प्रीतमने गाया है कि जो किनारेपर खड़ा है वह काँप रहा है, "जो धारामें कूद पड़ा है, वह परमानन्दका अनुभव कर रहा है।" इसीसे निष्कुलानन्दने कहा है कि वैराग्यके बिना त्याग टिक नहीं सकता।

जबतक किसी वस्तुके प्रति हममें राग है, तबतक उसका सच्चा त्याग सम्भव नहीं है। भूखसे मरते हुए कंगालोंको निराहारी त्यागी नहीं कहा जा सकता। वे तो लाचार होकर ही भूखे रहते हैं। उनका राग तो ज्योंका-त्यों बना हुआ है। वे चौबीसों घंटे खाते ही रहते हैं, क्योंकि उनका मन खानेमें ही लगा हुआ है। जिस असहयोगी विद्यार्थीका मन सरकारी स्कूलोंमें लगा हुआ है, किन्तु लोक-लाजके भयसे अथवा ऐसे ही किसी दूसरे कारणसे जिसका शरीर-भर राष्ट्रीय पाठशालामें है, वह त्यागी नहीं है, वह असहयोगी भी नहीं है। उसकी स्थिति तो सचमुच दयनीय है। जहाँ मन है, शरीरको भी वहीं रखनेवालेका उद्धार सम्भव है। किन्तु जो शरीर और मनको अलग-अलग रखता है वह स्वयं अपनेको, संसारको और ईश्वरको भी धोखा देता है।

[ गुजराती से ]
नवजीवन, २३-११-१९२४

३०३. भाषण: अ० भा० कांग्रेस कमेटी, बम्बईमें[१]


२३ नवम्बर, १९२४

मैंने अपनी निजी हैसियतमें और अपनी आन्तरिक भावनाओंको ध्यानमें रखते हुए समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। जब मैंने समझौते पर हस्ताक्षर किये उस समय मेरे मनमें ऐसा कोई विचार नहीं था कि अपरिवर्तनवादियोंको मैं अपने पक्षमें रख ही सकूँगा। मैं सभामें उपस्थित सभी लोगोंसे अनुरोध करूँगा कि मैं जो-कुछ कह रहा हूँ, उससे वे अभिभूत न हो जायें। अगर मेरी बात किसीकी बुद्धिको ठीक प्रतीत हो तो मैं अवश्य चाहूँगा कि वह इस समझौतेको स्वीकार कर ले, लेकिन अगर मैं अपनी बात उसकी बुद्धिको नहीं जँचा सकूँ तो उसकी भावनाओंका सहारामें नहीं लेना चाहता। इस समझौतेकी सफलता हम सबोंके हार्दिक सहयोगपर ही निर्भर है। मैंने असहयोग या सविनय अवज्ञा-सम्बन्धी अपने विचार बदले नहीं हैं और यदि मैं आज आगे न बढ़ता, या जो स्थिति मैंने हमेशा अपनाई है, उससे पीछे हटता हुआ प्रतीत होता हूँ तो देखनेमें ही ऐसा लगता है। वास्तवमें जहाँतक मेरा सवाल है, अहिंसा के

  1. यह भाषण गांधीजीने उस प्रस्तावको पेश करते हुए दिया था, जिसमें कलकत्ता-समझौतेका समर्थन किया गया था; प्रस्ताव बहुमतसे पास हो गया। साधन-सूत्रमें इस रिपोर्टको "सारांश" बताया गया है।