पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/४२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुआ तो यह देश सर्वथा स्वतन्त्र राष्ट्रके रूपमें भी अपने पैरोंपर खड़ा हो सकता है। साम्राज्यके अन्तर्गत स्वराज्य स्वतन्त्रताकी ही स्थिति है, क्योंकि इसका अर्थ साम्राज्यमें स्वेच्छासे शामिल रहना है और यह है कि यदि भारतको वांछनीय प्रतीत हो तो वह उससे अलग भी हो सकता है। इसका स्वरूप तो स्वतन्त्र राष्ट्रोंके बीच राजी-खुशीकी साझेदारीवाला ही होना चाहिए। यह बात हमारे लिए इतनी महत्त्वपूर्ण है कि इसे हम छोड़ ही नहीं सकते। जो लोग आज कांग्रेसका नेतृत्व कर रहे हैं, वे यदि कांग्रेसके मूल सिद्धान्तमें ऐसा कोई परिवर्तन करना भी चाहें जिससे उसका मतलब सिर्फ साम्राज्यके अन्तर्गत स्वराज्य और इसलिए पराधीन राज्य रह जाये तो कांग्रेस-जनोंका बहुत भारी बहुमत इस अपमानजनक स्थितिको स्वीकार नहीं करेगा। इस सिद्धान्तको लिबरलों और इंडिपेंडेंटों द्वारा अभीप्सित दिशामें बदलनेका प्रयत्न करनेका मतलब वर्तमान राष्ट्रीय भावनाके विरुद्ध चलना होगा। वे जो कर सकते हैं वह यही कि वे कांग्रेसमें शामिल हो जायें और फिर जिस प्रकार मौलाना हसरत मोहानी कांग्रेसके सिद्धान्तमें ऐसा परिवर्तन करानेका प्रयत्न कर रहे हैं जिससे उसका एकमात्र उद्देश्य ब्रिटेनसे सारे सम्बन्ध तोड़ लेना ही हो जाये, उसी प्रकार वे भी कांग्रेसवालोंको परिवर्तनकी उपयोगिता या आवश्यकताकी प्रतीति करानेका प्रयास करें। मेरा तो सादर निवेदन है कि वर्तमान सिद्धान्तमें कोई भी चीज अनैतिक अथवा हानिकर नहीं है। इसके विपरीत, ऐसा मान लेना कि कमसे- कम फिलहाल तो हम स्वतन्त्रताके लिए सक्षम नहीं हैं, नैतिक दृष्टिकोणसे बहुत ही आपत्तिजनक हो सकता है। जिस राष्ट्रमें सच्ची आकांक्षा हो, वह स्वतन्त्रताके लिए अक्षम हो ही नहीं सकता। जो भी हो, मुझे विश्वास है, इस बातको सभी दल स्वीकार करेंगे कि कांग्रेसके पीछे ऐसे सदस्य-समूहका बल है जो समय-समयपर अपनी ही करानेपर कटिबद्ध हो सकता है और यह बात बहुत अच्छी है।

कांग्रेसमें स्वराज्यवादियोंका स्थान क्या हो, इसका निर्णय तो, दरअसल, उन्हींके हाथमें है। आज कांग्रेसमें उनका और अपरिवर्तनवादियोंका बोलबाला है। यदि कांग्रेस असहयोग स्थगित कर देती है तो स्वराज्यवादी, शायद स्वतः ही प्रमुखता प्राप्त कर लेंगे और यदि दोनों दल राष्ट्रके हितको ध्यानमें रखकर कांग्रेसको विभाजनसे बचानेका फैसला करते हैं तो दोनोंको इस संगठनका संयुक्त और समान साझेदार मानना चाहिए। कलकत्तेके समझौतेमें मैंने इसी सीधे-सादे और स्वाभाविक तथ्यको स्वीकार किया है। यदि कोई भी दल कुछ अधिक पाना चाहता है तो इसका तरीका यही है कि वह कांग्रेसमें शामिल होकर स्वराज्यवादियोंको तर्क द्वारा अपना दृष्टिकोण समझाये या कांग्रेसके सदस्योंको अपनी बात बताये और कांग्रेसके लिए अपने पक्षका समर्थन करनेवाले नये सदस्य भी बनाये। कांग्रेसके सदस्योंकी संख्या बढ़ानेकी गुंजाइश बहुत अधिक है और यदि अपनी विचार-पद्धतिके अनुकूल पुरुष और स्त्रियाँ मिल सकें तो कांग्रेस मण्डलों और कमेटियोंका गठन तो लगभग हर आदमी कर सकता है।

तीसरी आपत्ति सदस्यताकी शर्तपर है। अगर इसमें नवीनता नहीं होती तो इसपर न केवल लोगोंको कोई आश्चर्य नहीं होता, बल्कि वे सदस्यताकी सर्वोत्तम