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३१२. अपरिवर्तनवादियोंकी दशा

अपरिवर्तनवादियोंकी हालत सचमुच दयाजनक है और यह खयाल मुझे खिन्न कर देता है कि यदि सोलह आना नहीं तो बहुत अंशमें, मैं ही इसका कारण हूँ। इस परिस्थितिमें मुझे आश्वासन मिलता है तो केवल इसी विचारसे कि मैं तमाम अपरिवर्तनवादियोंमें सबसे ज्यादा सुदृढ़ अपरिवर्तनवादी हूँ। मैं समझता हूँ, इस विचारसे उन्हें भी आश्वासन मिलना चाहिए। पर अपरिवर्तनवादी किसे कहना चाहिए? 'अपरिवर्तन-वादी' कोई अच्छा शब्द नहीं। इसका कुछ भी मतलब नहीं होता। पर इसका प्रयोग उन लोगोंके लिए होता आया है जो कलकत्तेमें १९२० में पास[१] हुए मूल असहयोग-प्रस्तावको मानते हैं। उसका कार्यकारी भाग है, अहिंसा। १९२० के पहले भी हम अपने दिलोंमें असहयोग कर रहे थे क्योंकि हमारा दिल तो सरकारके खिलाफ ही था। हाँ, अपने ऊपरी आचरणके द्वारा हम जरूर उससे सहयोग करते हुए दिखाई देते थे। १९२० में यह हालत बदल गई। हमने मन, वचन और कर्ममें सहयोग स्थापित करनेकी कोशिश की। हमने देखा कि यह सहयोग केवल अहिंसाके द्वारा ही हो सकता है और हमने यह भी देखा कि जितना सम्भव हो उतनी अधिक मात्रामें यदि हम सरकारसे अपना सहयोग हटा लेते हैं तो उसे हमारे सामने घुटने टेक देने पड़ेंगे। इसलिए अपरिवर्तनवादी वह है जो अपने शासकोंका बुरा तो नहीं चाहता--पर उनकी प्रणालीको नष्ट करना चाहता है और इसलिए जिसने उस शासन-प्रणालीके कहे जानेवाले लाभोंका अर्थात् विधान-परिषदों, अदालतों, शिक्षालयों, उपाधियों और लुभावने विदेशी कपड़ोंका त्याग कर दिया है। यह उसका निषेधात्मक अंग था। उसका विधायक अंग था स्वतन्त्र शिक्षालयों-पंचायतोंकी स्थापना और हाथ-कती और हाथ-बुनी खादीका उत्पादन। इस नीतिके अन्तर्गत कांग्रेसने केन्द्रीय विधान सभाका स्थान ले लिया था और स्वयंसेवकोंका ठोस काम करना ही उनकी ऊँचीसे-ऊँची उपाधि थी। परन्तु न तो पूर्वोक्त पाँच सरकारी संस्थाओंको हम नष्ट ही कर सके और न नव-स्थापित संस्थाओंका परिणामकारी फल ही दिखाई दिया। इससे हमारे कुछ लोगों का दिल टूट गया और उन्होंने देखा कि अब तो विधान-परिषदोंका उपयोग ही राष्ट्रकी सेवा करनेका एक मार्ग रह गया है। अब अपरिवर्तनवादियोंको, यदि सच- मुच उनका विश्वास अहिंसामें था तो चाहिए था कि वे अपने साथियोंकी श्रद्धाहीनता पर बिगड़ न उठते। उन्हें चाहिए था कि उन्हें भी प्रामाणिकता और देशभक्तिका उतना ही श्रेय देते जितनेका दावा वे अपने लिए करते थे। किन्तु उन्होंने तो जोर-शोरके साथ अपने उन साथियोंका जो कि अब स्वराज्यवादी कहे जाते हैं, विरोध किया। यदि वे सचमुच अहिंसा-परायण होते तो वे सहिष्णुताका आश्रय लेकर उनके मतभेदके प्रति अपना आदर प्रकट करके उन्हें उनके रास्ते जाने देते। पर उनकी

  1. देखिए खण्ड १८।