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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

डालते हैं? तब मुझे इस बातका पता चलता कि वे अपने स्वार्थ-साधनके लिए ऐसा नहीं करते हैं; बल्कि अपने देशके लिए आजादी चाहते हैं। इसलिए मैं उस असली कारणका इलाज करनेमें उन प्रतिनिधियोंकी सलाहके मुताबिक चलता। हाँ, इस बातका जरूर खयाल रखता कि विदेशियोंके न्यायोचित हितोंका घात न होने पावे। इतना कर चुकनेपर मैं इस विचारसे सन्तोष मानकर निश्चिन्त रहता कि ऐसे भावी विषम प्रसंगोंका उपाय करनेकी जिम्मेदारी मेरी विधान-सभाकी भी उतनी ही होगी जितनी कि मेरी है।

मैं जानता हूँ कि मैंने इसमें कोई नई बात नहीं बताई, पर उसका गुण यहीं है कि वह पुरानी है। वर्तमान शासन-पद्धति भय-प्रदर्शनकी नीतिपर ही जीवित रह रही है और एकके बाद एक, सभी वाइसराय भारतीयोंके साथ परामर्श करनेकी इस स्पष्ट आवश्यकताकी ओरसे आँखें मूँदते रहे हैं। इस दुराग्रहसे पूर्वोक्त सलाहकी व्यर्थता नहीं साबित होती। उलटे, उस तन्त्रका ही निकम्मापन सिद्ध होता है जिसके अन्दर इस तरह लोकमतकी व्यवस्थित अवगणना हो सकती है। ऐसी हालतमें यदि वाइसरायको, न केवल जनतासे वह समर्थन नहीं मिलता, जिसकी वह आशा करते हैं बल्कि लगभग सारे देशकी आलोचना और निन्दाका शिकार होना पड़ता है तो इसमें क्या आश्चर्य है।

एक गलतफहमी

सरकारी कर्जकी अदायगीके दायित्वके अस्वीकारके सम्बन्धमें गया कांग्रेस द्वारा पास किये गये प्रस्तावपर मेरी टिप्पणीसे[१], मैं देखता हूँ कि कुछ गलतफहमी पैदा हो गई है। यह टिप्पणी ऐसे समय प्रकाशित हुई जब हम लोग एकताकी बात सोच रहे हैं। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात थी। सचाई यह है कि उक्त टिप्पणी एक सज्जनके पत्रके उत्तरमें तीन महीने पहले ही लिखी जा चुकी थी। लेकिन सप्ताह-दर-सप्ताह मेरे सहायक लोग ऐसी दूसरी चीजोंके प्रकाशनको प्राथमिकता देनेके लिए, जो उनकी नजरमें ज्यादा महत्त्वपूर्ण थीं, इसे रोककर अलग रखते रहे और अन्तमें जब यह टिप्पणी छपी तो वे टिप्पणीके, जो निश्चित तौरपर बेकारके विवादको जन्म देनेवाली थी और दूसरे लेखोंके, जिनमें सहमतिके मामलोंपर जोर दिया गया था, बीचकी असंगतिको नजरमें नहीं रख सके। इसलिए जहाँ मैं इस समय इस टिप्पणीके प्रकाशनको अवसरकी दृष्टिसे अनुपयुक्त मानता हूँ, वहाँ मैं यह जरूर कहूँगा कि यह अब भी सरकारी कर्जके बारेमें मेरे मतको व्यक्त करती है। गया प्रस्तावका जो भी अर्थ हो, मेरी टिप्पणी स्पष्ट है। मैं नहीं चाहता कि वर्तमान सरकार द्वारा लिये गये सारे ऋणोंके दायित्वसे इनकार कर दिया जाये, लेकिन मैं यह जरूर कहता हूँ कि जब सत्ताका अन्तिम हस्तान्तरण होगा, तब सरकारके ऐसे सभी ऋणोंकी पूरी जाँच-पड़ताल करना जरूरी होगा और वे ही ऋण मान्य होंगे जो इस पड़तालमें खरे उतरेंगे। उदाहरणके लिए, मान लीजिए कि सरकार देशके खनिज साधनोंके समुप-

  1. देखिए "टिप्पणियाँ", १३-११-१९२४ का उपशीर्षक 'राष्ट्र ऋण'