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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

काम एक दिन भी नहीं रोका। उन्हें दूसरे ही दिन मुजफ्फरनगर जाना था। उन्होंने उस करारको मुकम्मिल निभाया। मुझे उसी दिन रामजस कालेज जाना था। जिस समय मुझे कालेज जाना था कब्रिस्तान जानेके लिए भी वही समय रखा गया था, इसलिए मेरा विचार उक्त कार्यक्रमको रद कर देनेका था। लेकिन उन्होंने यह भी नहीं करने दिया। मुझे यह कहकर विदा कर दिया कि कब्रिस्तान जाते समय कंधा देनेके लिए आपको बुला लेंगे। इस सबसे कर्त्तव्य परायणता, विवेक और ईश्वरके प्रति आस्थाका परिचय मिलता है। मैंने तिलक महाराजके बारेमें भी ऐसा ही सुना है। उन्हें चाहे जितना दु:खद समाचार मिले, वे अपनी दिनचर्यामें कोई परिवर्तन नहीं करते थे। अंग्रेजोंमें तो ऐसी कर्त्तव्य-परायणता मैंने बहुत देखी है। जिसमें ऐसा धीरज नहीं है, वह मनुष्य कहलाने लायक नहीं---ऐसा कहनेमें कोई अत्युक्ति नहीं है।

पारसी रुस्तमजी

बी-अम्माँकी मृत्युसे, जैसा कि मौलाना शौकत अलीने कहा है, हिन्दुस्तानका एक सच्चा सिपाही कम हो गया है। पारसी रुस्तमजी की मृत्युसे भी एक सच्चा सिपाही कम हो गया है। इतना ही नहीं, मेरा तो एक परम मित्र ही कम हो गया है। पारसी रुस्तमजी-जैसे आदमी मैंने थोड़े ही देखे हैं। शिक्षा उन्होंने नहींके बराबर प्राप्त की थी। वे थोड़ी ही अंग्रेजी जानते थे। गुजरातीका ज्ञान भी मामूली था। बहुत पढ़नेका भी शौक न था। वे जवानीमें ही व्यापारमें पड़ गये थे। केवल अपने परिश्रमके बलपर एक मामूली गुमाश्तेकी हालतसे एक बड़े व्यापारीके दर्जेपर जा पहुँचे थे। फिर भी उनकी व्यवहार-बुद्धि तीव्र थी, उनकी उदारता हातिमकी जैसी थी; उनमें सहिष्णुता तो इतनी अधिक थी कि खुद कट्टर पारसी होते हुए भी हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदिके प्रति वे एक-सा प्रेम रखते थे। किसी भी चन्दा चाहनेवाले या हाथ फैलानेवालेको उनके पाससे खाली हाथ जाते हुए मैंने देखा ही नहीं। अपने मित्रोंके प्रति उनकी वफादारी इतनी सूक्ष्म थी कि कितने ही लोग उन्हींको अपना मुख्तियारनामा दे जाते थे। मैंने देखा है कि बड़े-बड़े मुसलमान व्यापारी अपने नाते-रिश्तेदारोंको छोड़कर पारसी रुस्तमजीको अपना प्रतिनिधि बनाते थे। कोई भी गरीब पारसी रुस्तमजी की दुकानसे खाली हाथ नहीं लौटता था। पारसी रुस्तमजी अपनोंके प्रति जितने उदार थे, खुद अपने प्रति उतने ही कंजूस थे। मौज-शौकका तो नाम भी नहीं जानते थे। अपने लिए या स्वजनोंके लिए विचारपूर्वक खर्च करते थे। उन्होंने घरमें अन्ततक बहुत सादगी कायम रखी। गोखले, एन्ड्रयूज, सरोजिनी देवी आदि रुस्तमजीकी दुकानपर ही ठहरते थे। छोटीसे-छोटी बात भी पारसी रुस्तमजीके ध्यानसे बाहर नहीं रहती थी। गोखलेके असंख्य अभिनन्दन-पत्र इत्यादिके बड़े-बड़े पैंतालीस अदद पैक कराने, उनकी फेहरिस्त बनाने, उन्हें जहाजपर चढ़ाने आदिका सारा भार पारसी रुस्तमजीपर न होता तो किसपर होता?

अपनी प्रिय धर्मपत्नीकी मृत्युपर उनके नामसे जेरबाई ट्रस्ट कायम करके अपनी सम्पत्तिका बड़ा भाग उन्होंने धर्म-कार्यके निमित्त दे दिया था। अपनी सन्तानको उन्होंने कभी भी अनुचित लाड़-प्यार और ऐशो-आराम नहीं दिया, बल्कि उन्हें सादगीसे रहना