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सिखाया और उनके लिए इतनी ही सम्पत्ति रख छोड़ी है, जिससे वे भूखों न मरें। अपने वसीयतनामेमें उन्होंने अपने तमाम रिश्तेदारोंको याद किया है।

जैसा ऊपर बताया गया है, वैसी ही तत्परता और दृढ़ताके साथ उन्होंने सार्वजनिक हलचलोंमें भी योग दिया था। सत्याग्रहके समय अपना सर्वस्व होम कर देनेके लिए तैयार हो जानेवाले नेटालके व्यापारियोंमें पारसी रुस्तमजी सबसे आगे थे। अंगीकृत कार्यको बड़ेसे-बड़ा संकट उपस्थित हो जानेपर भी न छोड़नेकी उनकी प्रकृति थी। जितना सोचा था, उससे अधिक दिनोंतक जेलमें रहना पड़ा तो भी वे हिम्मत न हारे। लड़ाई आठ सालतक चली, कितने ही मजबूत सिपाही हिम्मत हारकर बैठ गये, पर पारसी रुस्तमजी अडिग रहे। अपने पुत्र सोराबजीको भी उन्होंने लड़ाईमें होम दिया।

इस सज्जन हिन्दुस्तानीसे मेरा परिचय १८९३ में हुआ। पर ज्यों-ज्यों मैं सार्वजनिक कामोंमें पड़ता गया त्यों-त्यों पारसी रुस्तमजीमें मौजूद अमूल्य गुणोंकी कद्र करना मैं सीखता गया। वे मेरे मुवक्किल थे। सार्वजनिक कामोंमें वे मेरे साथी थे और अन्तमें वे मेरे मित्र बन गये। वे अपने दोषोंका वर्णन भी मेरे सामने बालककी तरह आकर कर देनेमें नहीं हिचकिचाते थे। मुझपर उनका ऐसा विश्वास था कि मैं चकित हो जाता था। १८९७ में जब गोरोंने मुझपर हमला किया, तब मेरे और मेरे बाल-बच्चोंका आश्रय-स्थान रुस्तमजीका मकान था। गोरोंने उनके मकान, मालमता आदिमें आग लगा देनेकी धमकी दी। पर उससे रुस्तमजी तनिक भी विचलित नहीं हुए। दक्षिण आफ्रिकामें जो नाता उन्होंने जोड़ा, उसे मृत्यु पर्यन्त कायम रखा। यहाँ भी वे सार्वजनिक कामोंके लिए पैसा भेजते रहते थे। दिसम्बरमें कांग्रेस अधिवेशनके समय उनके यहाँ आनेकी सम्भावना थी। पर ईश्वरको कुछ और ही मंजूर था। सेठ रुस्तमजी की मृत्युसे दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंकी बहुत बड़ी क्षति हुई है। सोराबजी अडाजानिया चले गये, फिर अहमद मुहम्मद काछलिया गये, अभी कुछ ही दिन पहले पी० के० नायडू गये और अब पारसी रुस्तमजी भी चले गये। अब दक्षिण आफ्रिकामें इन सेवकोंकी कोटिके भारतीय शायद ही रहे हों। ईश्वर निराधारोंका रखवाला है। वह दक्षिण आफ्रिकाके भारतवासियोंकी रक्षा करेगा; परन्तु पारसी रुस्तमजीकी जगह तो हमेशा खाली ही रहेगी।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ३०-११-१९२४