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विरोधी मित्र

गय होते तो खादीको धोनेमें हम कष्ट नहीं, उलटा आनन्द मानते। फिर, खादी पह्ननेवाला कपड़े कम पहनता है, इसलिए कुल मिलाकर धुलाई आदिमें कष्ट भी कम ही होता है। इससे आगे बढूँ तो मैं यह भी कहूँगा कि जिन्हें मोटी खादी कष्टकर मालूम होती है वे महीन सूत कातकर कपड़ा बुनवा लें। इससे खादी मलमल-जैसी बारीक हो जायेगी और उसका खर्च मलमलसे कम पड़ेगा, क्योंकि कातनेतक की क्रियाका तो कुछ भी खर्च न पड़ेगा। जबसे स्वेच्छया कताईकी हलचल शुरू हुई है, तबसे जो महीन खादी पहनना चाहता हो, उसे महीन खादी मिल सकनेकी सुविधा भी हो गई है। जो अपने आलस्यवश महीन सूत न कातेंगे, उन्हें खादीपर मोटेपनका दोष लगानेका अधिकार नहीं हो सकता। यदि स्वेच्छया कताईकी प्रवृत्ति कायम रही और खूब फैल गई तो बाजारमें भी जितनी चाहिए उतनी महीन खादी मिल सकेगी।

चरखेकी हलचलका उद्देश्य है आमदनी बढ़ाना। वह अन्नपूर्णा है। पत्र -लेखक भाई वकील हैं। उन्हें गरीबोंकी दशाकी कल्पना नहीं हो सकती। यदि वे गरीब गाँवोंमें घूमें तो उन्हें मालूम हो जायेगा कि एक पैसा भी कंगालके लिए स्वागत-योग्य होता है। करोड़ों मजदूरोंको दिनमें एक आना भी नहीं मिलता। उनके लिए तो चरखा कामधेनु हो जाता है। इसके एक साक्षी तो आचार्य राय हैं।

पत्र-लेखक द्वारा [सविनय-] अवज्ञाके सम्बन्धमें किया गया कटाक्ष भी विचार करने योग्य है। उसमें बहुत सत्यांश है। जिस प्रकार लोगोंने असहयोगके प्रथम पद 'शान्तिमय' को नहीं समझा, उसी प्रकार अवज्ञाके प्रथम पद 'सविनय' को भी नहीं समझा। और इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसीसे बुरे परिणाम सामने आये हैं। बहुत-से लोगोंने मान लिया है कि चाहे जिस कानूनकी, चाहे जिस-किसीको अवज्ञा करनेका अधिकार है। यह सविनय अवज्ञा नहीं, बल्कि उद्धततापूर्ण, अविनयपूर्ण और विनाशकारी अवज्ञा है। यह तो कुछ अंशोंमें सशस्त्र विद्रोहसे भी ज्यादा हानिकर है। लेकिन इसमें सविनय अवज्ञाकी खामी नहीं मानी जायेगी; यह तो अवज्ञा करनेवालोंकी नासमझीका दोष है। नये आन्दोलनमें ऐसी नासमझी हुआ ही करती है। अपूर्ण मनुष्योंके बीच जब अपूर्ण मनुष्य काम करता है तब ऐसी अपूर्णताएँ होती ही हैं। परन्तु यदि सुधारक और समाज ये दोनों पक्ष निर्मल भावसे और अज्ञानवश भूल करें तो यह ईश्वरीय नियम है कि वह भूल अपने-आप सुधर जाती है। जहाँ-जहाँ मुझे दोष दिखाई देता है, वहाँ-वहाँ मैं प्रायश्चित्त करता हूँ। लोग भी सच्चे दिलसे अपनी भूल सुधारते हैं। लेकिन उनके बीच एक दल ऐसा है, जो जान-बूझकर बीचमें पड़ता है और लड़ाईको नुकसान पहुँचाता है। इसका इलाज यही है कि इन नये दिखाई देनेवाले सिद्धान्तोंका अधिक प्रचार किया जाये, इनको अधिक समझा जाये। फिर भी, हम सबको सावधान करनेके लिए लेखकके उद्गारोंका में स्वागत करता हूँ।

[ गुजराती से ]
नवजीवन, ३०-११-१९२४
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