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३३४. पत्र: कर्नल मरेको

स्थायी पता:
साबरमती
[४ दिसम्बर, १९२४ के आसपास][१]

प्रिय कर्नल मरे,[२]

श्री पी० के० देसाईके सम्बन्धमें आपके उत्तरके लिए धन्यवाद। मैं जानता हूँ कि उन्होंने आपसे शिकायत नहीं की थी क्योंकि वे उन सरकारी अधिकारियोंके बारेमें कुछ नहीं कहना चाहते थे जो भारतीय हैं। मुझे ज्ञात था कि श्री देसाई कठोर श्रमकी सजा पाये हुए कैदी हैं। लेकिन मैंने सोचा कि जैसा यरवदामें था, आप उन्हें चरखेपर सूत बटनेकी नहीं लेकिन सूत कातनेकी इजाजत देनेमें आपत्ति नहीं करेंगे।

मेरे स्वास्थ्यके बारेमें आपकी पूछताछके लिए आपको धन्यवाद। कर्नल मैडॉक द्वारा अत्यन्त सफल ऑपरेशन किये जानेके बाद मैं बिलकुल ठीक हो गया दिखता हूँ। मुझे नहीं मालूम था कि कर्नल मेल सेवा-निवृत्त हो चुके हैं।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ११७२९) की फोटो-नकलसे।

३३५. क्या अस्पृश्यताका बचाव हो सकता है?[३]

[५ दिसम्बर, १९२४][४]

मेरी रायमें श्री एन्ड्रयूजने बाबू कालीशंकर चक्रवर्तीके साथ बहुत लिहाज बरता है। यह ठीक है कि बंगालमें अस्पृश्योंकी दशाके मुकाबले दक्षिणके अस्पृश्योंकी दशा कहीं ज्यादा खराब है, लेकिन बंगालमें भी वह काफी खराब है और उसका कोई बचाव नहीं हो सकता। अस्पृश्यताका बचाव करनेवालोंकी अपेक्षा नामशूद्र लोग अस्पृश्यताके दुष्परिणामोंके बारेमें ज्यादा अधिकारपूर्वक कह सकते हैं। हमें अंग्रेज शासकोंसे यह

  1. कर्नल मरेका पत्र, जिसके जवाबमें यह पत्र लिखा गया था, ४-१२-१९२४ के यंग इंडिया में छपा था। देखिए "टिप्पणियाँ", ४-१२-१९२४, उप शीर्षक "प्रागजी देसाई"।
  2. जेलोंके प्रधान अधीक्षक।
  3. सी० एफ० एन्ड्रयूज द्वारा इस शीर्षकसे लिखे लेखको यहाँ नहीं दिया जा रहा है। उस लेखमें श्री एन्ड्यूजने बाबू कालीशंकर द्वारा अस्पृश्यताके बचावमें लिखे एक पत्रका जवाब दिया था। गांधीजीने श्री एन्ड्रयूजके उसी लेखपर अपनी उक्त टिप्पणी दी है। बाबू कालीशंकरने अस्पृश्यताकी तुलना अहिंसक असहयोगसे करके उसका बचाव करनेकी कोशिश की थी।
  4. देखिए "पत्र: सी० एफ० एन्ड्रयूजको", ५-१२-१९२४।