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दीक्षान्त भाषण: पंजाब कौमी विद्यापीठमें

गांधीजीने अपना भाषण नये स्नातकों द्वारा की गई प्रतिज्ञाका उल्लेख करते हुए शुरू किया और ईश्वरसे प्रार्थना की कि वह उन्हें उनके देश या धर्मको हानि पहुँचा सकनेवाली हर चीजसे बचनेकी शक्ति प्रदान करे। उन्होंने कहा, मैं आपको डिग्री हासिल करनेपर बधाई देता हूँ। आप आगे चलकर जो भी काम हाथमें लें, हर समय अपने देशको स्वराज्य दिलानेका अपना उद्देश्य ध्यानमें रखें।

मुझसे रजिस्ट्रारने कहा है कि मैं बेलगाँवमें कोई ऐसा सुझाव लोगोंके सामने रखूँ जिससे देश भरको इन राष्ट्रीय संस्थाओंमें और अधिक शक्तिका संचार हो। कह नहीं सकता कि मैं बेलगाँवमें क्या सुझाव दूँगा। मैंने 'यंग इंडिया' में लिखा था कि मेरे और शिक्षित समुदायके बीचकी दूरी दिन-दिन बढ़ती जा रही है।[१] फिर भी मैं निराश नहीं हूँ। यह दूरी अवश्यंभावी है। रजिस्ट्रारने शिक्षाकी चालू पद्धतिके उद्देश्यके बारेमें लॉर्ड मैकॉलेका कथन उद्धृत किया है। इसमें शक नहीं कि लॉर्ड मैकॉलेका उद्देश्य पूर्ण रूपसे फलीभूत नहीं हो पाया है जैसा कि लालाजीने[२]कहा है, इस बातको हर आदमी मानता है कि हमारी सभ्यता युगों पुरानी है। इसलिए हमको सदा गुलाम बनाये रखना असम्भव है।

मैं पिछले चालीस वर्षोंसे शिक्षाकी चालू पद्धतिके परिणामोंपर दृष्टि रखता आया हूँ। एक समय था, जब मैं भी उसपर मुग्ध था और मैंने दक्षिण आफ्रिकाके कई लोगों को बैरिस्टर बनानेमें मदद दी थी। लेकिन मेरा भ्रम दूर हो गया। मैंने एक अमेरिकी लेखककी वह सम्मति पढ़ी है कि भविष्य उन देशोंके ही हाथमें है, जिनकी सन्तान शारीरिक श्रमकी महत्ताको समझेगी और उसे अपनी शैक्षणिक पद्धतिका एक अंग बना लेगी।

टालस्टायने इसे 'ब्रेड-लेबर'--'रोटीका श्रम' कहा है। भगवद्गीतामें भी कहा गया है कि जो मनुष्य आवश्यक दैनिक यज्ञ किये बिना खाता है, वह वास्तवमें चोर[३] है। समाजकी खातिर किया गया शारीरिक श्रम ही यह यज्ञ है। मेरी इस व्याख्याका समर्थन एक अन्य विद्वान्ने भी किया है। कुरान और पारसी धर्म-शास्त्रमें भी मुझे यही बात मिली है। पुराने जमानेके खलीफा लोग भी अपने जीवन-यापनके लिए श्रम किया करते थे और अपना शेष समय धार्मिक कार्योंमें लगाते थे। इसलिए मेरी तो यही राय है कि जो मनुष्य श्रम-रूपी तपस्या नहीं करता उसे जीनेका कोई अधिकार नहीं। केवल अपने दिमागमें विभिन्न तथ्य ठसाठस भर लेना और फिर उनको जहाँ-तहाँ बाँटते रहना शिक्षा नहीं है। गुजरात विद्यापीठमें लोगोंने अपने आदर्शके रूपमें इस वाक्यको चुना है---"विद्या वही है जो मुक्ति दिलाये"।[४]यहाँ रजिस्ट्रारने अभी

  1. देखिए "ईश्वर हम सबकी सहायता करे!", २६-११-१९२४।
  2. लाला लाजपतराय, विद्यापीठके कुलपति
  3. ३, १२।
  4. सा विद्या या विमुक्तये।