पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/४६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३३
दीक्षान्त भाषण: पंजाब कौमी विद्यापीठमें

करना चाहता हूँ हिंसापूर्ण नहीं और मेरा असहयोग इस शासन-प्रणालीके विरुद्ध है, इस प्रणालीको चलानेवाले व्यक्तियोंके विरुद्ध नहीं।

व्यक्तिके नाते मुझे लॉर्ड रीडिंग या सर मेलकम हेलीसे कोई शिकायत नहीं है, हालाँकि मैंने सुना है, सर मेलकम हेली इस समय पंजाब-भरमें बड़ी तेजीसे अपना जाल फैला रहे हैं। मैं यह नहीं कहता कि सर मेलकम हेली जानते हैं कि वे ऐसा कर रहे हैं। लेकिन मैंने लम्बे अर्सेतक इस सरकारके रंग-ढंगका अध्ययन बड़ी बारीकीसे किया है और इसलिए मैं यह बात जानता हूँ। इसके अतिरिक्त सर मेलकम यह जान भी कैसे सकते हैं? जूता पहननेवाला ही तो जान सकता है कि जूता कहाँ काट रहा है।

लेकिन जो असहयोग स्वयं दूषित हो, वह अपनाने योग्य नहीं है और हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच आज असहयोगकी ऐसी ही भावना वर्तमान है, वह घृणा और भयपर आधारित है और उसमें शान्ति और प्रेम लेश-मात्र भी नहीं है। आप सब ईश्वरसे यही प्रार्थना करें कि वह ऐसे असहयोगसे आपको बचाये।

लाहौर या बेलगाँवमें अध्यक्षताके लिए मेरे सहमत होनेका यह मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए कि मुझमें बड़प्पनका भाव आ गया है। इसके विपरीत मैं तो यह समझता हूँ कि मैं छूछे कारतूसके समान शक्तिहीन हो गया हूँ। मैं जानता हूँ कि भारतके शिक्षित लोगोंका एक बड़ा भाग मेरे साथ नहीं है। वे महात्मा गांधीकी जयके नारे भले ही लगायें, परन्तु उससे मुझे खुशी नहीं हो सकती। इसके बदले यदि वे मेरे ऊपर थूक भी दें, किन्तु मैं जैसा कहूँ वैसा करें तो मुझे सचमुच खुशी होगी।

अन्तमें गांधीजीने पूछा कि क्या पंजाबी लोग चरखको अपनायेंगे। पंजाबी हिन्दुओंसे यह सुनकर मुझे दुःख पहुँचता है कि वे खद्दर पहनना इसलिए हराम समझते हैं कि उसे मुसलमान बुनकर बुनते हैं। उनका पारस्परिक असहयोग इस सीमातक पहुँच चुका है। मैं खुद चाहता हूँ कि मुसलमान बुनकर अपना धन्धा फिर अपना लें। मेरा आपसे यही आग्रह है कि आप सभी लोग चरखेको पूरे उत्साह और अटूट विश्वाससे अपनायें। दूसरे तरफ मुसलमान चाहते हैं कि खद्दर मलमल-जैसा महीन और मैंचेस्टरके कपड़ों-जैसा सस्ता हो। ऐसे हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनोंको मैं आगाह कर देना चाहता हूँ कि वे जबतक खद्दरका सन्देश नहीं सुनेंगे, तबतक स्वराज्य नहीं मिल सकता।

[ अंग्रेजीसे ],
ट्रिब्यून, ९-१२-१९२४
२५-२८