पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/४७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

३४३. किस आशासे?

पाठक यह तो समझ ही लेंगे कि अपने दूसरे काम-काजके बीच मैंने जो काठियावाड़ राजनीतिक परिषद्का अध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया है वह छोटी या बड़ी आशासे ही किया होगा।

काठियावाड़में एक डुबकी लगा आनेका लोभ तो मुझे बराबर रहता है, लेकिन इस इच्छाको तो मैं दूसरे मौकेपर और अध्यक्ष-पदका भार उठाये बिना भी पूरा कर सकता था। मैं वहाँ जा तो रहा हूँ इस आशासे कि काठियावाड़पर जो खादीके प्रति उदासीनता बरतनेका आरोप लगाया जाता है, उससे वह मुक्त हो जाये। मेरे पास आनेवाले भाइयोंने मुझे भरोसा दिलाया है कि सोनगढ़को मैं पूरी तरह खादी-नगरके ही रूपमें देखूँगा और परिषद् में आनेवाले हजारों लोग तो खादी पहनकर ही आयेंगे।

जो-कुछ मिल जाये, वह तो लाभ ही है, ऐसा समझकर मैं इतनेको ही स्वीकार कर लूँगा, किन्तु साथ ही जैसा उत्तर तिलक महाराजने स्वर्गीय श्री मॉन्टेग्युको[१] दिया था, मैं भी वैसा ही कहूँगा: "जो मिलेगा उसे स्वीकार करके अधिकके लिए लडूँगा।" काठियावाड़में पैदा हुई रुई बाहर जाये और उस रुईसे जो कपड़ा बनकर बाहरसे आये उसे काठियावाड़के लोग पहनें, यह बात तो बराबर असह्य मानी ही जायेगी, किन्तु रुईकी ही तरह काठियावाड़की जनता भी आजीविकाके अभावमें बाहर जाये, यह कैसे देखा जा सकता है?

काठियावाड़के बुनकरोंको रोजगार न मिले, काठियावाड़की गरीब बहनोंको कताईके अभावमें दुःख उठाना पड़े, यह कैसी विडम्बना है? इसमें मुझे राजा प्रजा दोनोंका दोष दिखाई देता है। अगर राजा लोग चाहें तो अपने राज्योंमें पैदा होनेवाली रुईका उपयोग वहीं करवाकर हाथ कताई और उससे सम्बन्धित अन्य कलाओंका पुनरुद्धार करा सकते हैं।

एक समय था जब काठियावाड़के कुशल बुनकरोंको मैंने पोरबन्दरमें कहाँ नहीं देखा? आज उनका धन्धा लगभग नष्ट हो गया है। यह मेरे ही समयकी बात है कि काठियावाड़ी अतलस और अहमदाबादी अतलसके बीच होड़ चलती थी और उसमें काठियावाड़ जीतता था। काठियावाड़के खत्रियोंको मंदिरमें भी बँधाईकी रीतिसे रंगने का काम अपने साथ लाकर अपने समयका सदुपयोग करते मैंने स्वयं अपनी आँखों देखा है। आज वे सब कहाँ है? एक समयमें काठियावाड़की जरीकी साड़ियाँ प्रख्यात थीं। उन्हें बुननेवालोंको मैंने देखा है। किन्तु आज वे कहाँ हैं? चालीस वर्ष पहले मैं राजकोटके इर्दगिर्द काठियावाड़के रंगरेजोंको देखा करता था, और [उनकी कारीगरीके नमूनेको देखकर मनमें जगनेवाली] लड़कपनकी यह निर्दोष इच्छा कि

  1. ई० एस० मॉन्टेग्यू (१८७९-१९२४); भारत-मन्त्री, १९१७-२२।