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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

'कितना अच्छा हो, अगर पिताजी मुझे इस रंगका साफा खरीद दें,' मुझे आज भी याद है। कौन जाने, आज ये रंगरेज कहाँ होंगे।

कौन जानता है कि हाथ-कताईके लोपके साथ-साथ उससे सम्बन्धित और भी कितने धन्धे लुप्त हो गये हैं? उनकी गिनती कौन कर सकता है? कताईके लोपके साथ ही कलाका भी लोप हो गया है, इसका एहसास हमें कहाँ है? इस कलाके साथ ही करोड़ों किसानोंके घरोंकी ज्योति बुझ गई है, इसका विचार भी हम शहरी लोग कहाँ करते हैं? चरखेमें जो बरकत थी, वह चरखेके साथ ही चली गई! जिन घरोंमें चरखेको फिरसे स्थान मिल गया है, उनमें बरकत फिरसे आ रही है। अलबत्ता, अभी वह वहाँ पूरी तरह स्थिर नहीं हुई है, क्योंकि उन घरोंमें चरखेपर अभी पूरी श्रद्धा पैदा नहीं हुई है। "मेरे सूतकी खपत नहीं हुई तब मेरा क्या होगा? इन कांग्रेसियोंका क्या भरोसा? ये लोग आज कुछ करते हैं तो कल कुछ। इनकी पीठपर सरकार तो है नहीं?" ऐसी अनिश्चित स्थितिसे वे घबराते हैं। 'दूधका जला छाछ भी फूँक-फूँककर पीता है,' आज हमारी दशा ऐसी ही दयनीय है।

ऐसी स्थितिमें मैं अपने मनमें इस आशाको सँजोये हुए हूँ कि काठियावाड़ खादी के कार्यको हाथमें लेकर उसकी शोभा बढ़ायेगा।

दूसरी आशा भी उतनी ही निर्दोष, उतनी ही तीव्र और उसी प्रकार धार्मिक है। धर्म-तत्त्व तो कदाचित् इस दूसरी आशामें अधिक ही हो। काठियावाड़की अस्पृश्यतासे तो विदुरका साग खानेवाले, ग्वाल-बालोंके साथ खेलनेवाले, गायें चरानेवाले, गोपियोंके निर्मल मनको हरनेवाले, उनके पवित्र हृदयोंके स्वामी कृष्ण भी हार गये हैं। जिसे कृष्णने चीथड़ोंमें लिपटे सुदामाको आनन्दित हो गलेसे लगा लिया था, क्या अन्त्यजोंके स्पर्शसे वह अपनेको अपवित्र हुआ मानेगा?

लेकिन उसी कृष्णके सौराष्ट्रमें आज अन्त्यजोंको चारों ओरसे दुतकारा जाता है। उनका स्पर्श दोषपूर्ण माना जाता है और कुछ भले काठियावाड़ी तो उन्हें गाली देने और मारने-पीटनेमें भी नहीं चूकते। इनका सहायक, इनका मित्र कौन होगा? मुझे उम्मीद है कि जो लोग परिषद् में उपस्थित होंगे वे इस दोषसे मुक्त रहेंगे, इतना ही नहीं, बल्कि वे अन्त्यज-सेवाकी प्रतिज्ञा लेंगे।

मुझे संयोजकोंको बता देना चाहिए कि यदि मण्डपमें किसी भी स्थानपर अन्त्यजोंका प्रवेश निषिद्ध होगा तो जहाँ अन्त्यजोंको जगह दी जायेगी, उन्हें अध्यक्षको भी वहीं जगह देनी होगी और अध्यक्षको वहाँ बैठकर अत्यन्त प्रसन्नता होगी। हिन्दू-धर्ममें अस्पृश्यता नहीं है। जिस धर्ममें अस्पृश्यता है, वह धर्म नहीं है, अधर्म है, मेरा ऐसा दृढ़ विश्वास है। मनुष्य दूसरे मनुष्यका स्पर्श करके दूषित नहीं होता, बल्कि अपने अन्तरमें निहित मलिन वृत्तिका स्पर्श करके तथा उसे पोषित करके ही दूषित होता है।

लेकिन राजनीतिक परिषद् के सदस्य शायद सोचेंगे कि इन बातोंका राजनीतिक परिषद्से क्या सम्बन्ध है? मैं अनेक बार बता चुका हूँ कि राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक---ये तीनों कोई अलग-अलग प्रवृत्तियाँ नहीं हैं; अपितु इन तीनोंका