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कपास बचाओ

परस्पर सम्बन्ध है। "राजनीतिक" शब्द राजा और प्रजाके सम्बन्धोंका सूचक है; सामाजिक" शब्द समाजकी आन्तरिक व्यवस्थाका सूचक है और "धार्मिक" शब्द व्यक्तिके कर्त्तव्यका सूचक है। लेकिन "यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे," इस न्यायके अनुसार जो बात व्यक्तिके लिए ठीक है वहीं समाजके लिए भी ठीक है और जो समाजके लिए ठीक है वही राजा-प्रजाके सम्बन्धोंके लिए भी है। जहाँ धर्म नहीं है वहाँ जय नहीं, क्षय है। भले ही उससे जयका आभास होता हो, लेकिन उसे मृगजलके समान समझना चाहिए। जैसी प्रजा होगी, वैसा ही राजा और जैसा व्यक्ति होगा वैसा ही समाज होगा। सबका मूल व्यक्ति है और व्यक्तिका अस्तित्व केवल धर्मपर निर्भर है। इसीसे ऋषि-मुनियोंने कहा है: "जहाँ धर्म है वहीं जय है।[१]"

परिषद् में हम राजा-प्रजाके सम्बन्धोंपर अवश्य विचार करेंगे, लेकिन समाजके कर्त्तव्यपर स्पष्ट रूपसे विचार किये बिना राजा-प्रजाके धर्मका सम्यक् विचार मैं असम्भव मानता हूँ।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ७-१२-१९२४

३४४. कपास बचाओ

सूत कातनेमें सबसे पहली बात कपासका संग्रह है। उससे भी पहली चीज है कपास की बुवाई। परन्तु यहाँ हम उसके विषयमें विचार नहीं करेंगे, क्योंकि कपास तो सारे हिन्दुस्तानमें काफी परिमाणमें बोई जाती है। दुःखकी बात सिर्फ यह है कि इतनी कपासकी बुवाई होनेके बावजूद हमारे किसान भाई इसका सदुपयोग न जाननेके कारण इसका संग्रह करनेके बजाय, इसे अच्छे भावके लालचमें बेच दिया करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि अच्छे भावका बदला उन्हें बादमें मँहगाईके रूपमें चुकाना पड़ता है।

लेकिन इस विषयपर कभी फिर विचार करेंगे। इस समय तो इतना ही कह देना काफी है कि कपास की फसल आना अभी बाकी है और उसके विदेशोंमें भेजे जानेके लिए बेचनेके पहले समझदार किसान उसका संग्रह कर लें और सयाने-समझदार स्त्री-पुरुष ऐसा करनेके लिए नासमझ लोगोंको समझायें।

जिस तरह हम लोग १९२१ में चन्दे उगाहा करते थे, उसी तरह अब हमें चाहिए कि कपास उगाहें और उसे कतवायें-बुनवायें। इस बातमें मुझे कोई सन्देह नहीं कि पैसा उगाहनेकी बनिस्बत यह काम ज्यादा लाभदायक है, क्योंकि पैसा तो सूदसे ही बढ़ता है और सूद आलसियोंका धन है। कच्चा माल मेहनतसे बढ़ता है और मेहनत उद्यमीका धन है। हम मध्यवर्गी लोगोंने शारीरिक श्रमका मूल्य समझा ही नहीं। शारीरिक श्रममें हम सभीको लगा सकते हैं। इसलिए, यदि हमारे पास

  1. यतो धर्मः ततो जयः।