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भाषण: पंजाब प्रान्तीय सम्मेलनमें

मैं अन्तमें यही कहना चाहता हूँ कि शान्तिपूर्ण असहयोगका एकमात्र मार्ग चरखा ही है। मेरी तरह ही सभीको--मौलाना शौकत अलीको और सरदार मंगलसिंहको भी--चरखा चलाना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि यह काम जितना स्त्रियाँ करें उतना ही पुरुष भी करें। इसमें लज्जाकी कोई बात नहीं। लंकाशायरकी मिलोंके तकुए पुरुष ही चलाते हैं, स्त्रियाँ नहीं। काहिल आदमी ही चरखा चलानेसे कतराता है। मैं तो चरखेको ही भारतकी एकमात्र अर्थनीति और राजनीति मानता हूँ। अपरिवर्तनवादियों और स्वराज्यवादियोंके बीच समझौतेके हिस्सेके रूपमें कताई सदस्यताका प्रस्ताव भी आपके सामने आयेगा। "अनिच्छुक" लोगोंके लिए उसमें यह गुंजाइश रखी जा रही है कि वे दूसरोंसे अपने हिस्सेका सूत कतवा सकते हैं। लेकिन वह तो श्री केलकर, हकीमजी और नरमदलीय लोगोंके लिए है। मुझ जैसे सामान्य मनुष्यों और मेहनतकश लोगोंका तो नित्य प्रतिका कर्तव्य है कि हम चरखा चलायें। मेरा आपसे यही अनुरोध है कि आप समझौतेका समर्थन तभी करें जब आप सूत कातने और खट्टर पहननेकी बात हृदयसे मानते हों। आप उसका समर्थन सिर्फ मेरे व्यक्तित्वका खयाल करके न करें।

[ अंग्रेजीसे ]
ट्रिब्यून, ९-१२-१९२४

३४६. भाषण: पंजाब प्रान्तीय सम्मेलनमें[१]

७ दिसम्बर, १९२४

महात्मा गांधीने सम्मेलनकी कार्रवाईका समापन करते हुए कहा कि लोग राष्ट्रीय नारोंको बड़ी अहमियत देते हैं, लेकिन उनका कोई अधिक महत्त्व नहीं है। यह समय नारे लगानेका नहीं, काम करनेका है। अगर आप मेरी बताई तीन शर्तें पूरी कर दें तो भारत निश्चय ही अपने लक्ष्यकी ओर आगे बढ़ेगा। वे तीन शर्तें हैं--हिन्दू-मुस्लिम एकता, खद्दर और कताई तथा अस्पृश्यता-निवारण। स्वराज्य हासिल करनेके लिए संकल्प और शक्तिकी जरूरत है। आपमें संकल्प तो है, परन्तु आप अपनी शक्ति आपसी झगड़ोंमें नष्ट कर रहे हैं।

महात्माजीने आगे कहा, मैं दोनों जातियोंमें एकता पैदा करनेकी कोशिश कर रहा हूँ। मैंने लाहौरमें हिन्दू और मुसलमान दोनों जातियोंके नेताओंसे अनौपचारिक तौरपर बातचीत की है, परन्तु अभी कोई निबटारा नहीं हो पाया है। किन्तु इस समस्या समाधानकी दिशामें कई कदम जरूर उठाये जा चुके हैं। खद्दर और अस्पृश्यताका संक्षेपमें उल्लेख करनेके बाद महात्माजीने कहा, मुझे अब भी विश्वास है

  1. यह सम्मेलन लाहौरमें हुआ था।