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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि मैंने बारडोलीमें जो कदम उठाया था, वह ठीक था। उसके कारण देशकी एक भारी विपत्ति टल गई है।

इसके पश्चात् महात्मा गांधीने अहिंसाके फलितार्थ बताये और कहा कि मैं अहिंसाको धर्म मानता हूँ, परन्तु यदि कुछ लोग इसे एक नीतिके रूपमें भी स्वीकार करें तो उन्हें तबतक इसका पालन सचाईसे करना चाहिए जबतक वे इसे स्वीकार करें।

महात्माजीने अन्तमें अपनेको अध्यक्ष चुननेके लिए सम्मेलनके संयोजकों और अन्य लोगोंके प्रति आभार प्रकट किया।

[ अंग्रेजीसे ]
ट्रिब्यून, १०-१२-१९२४

३४७. भाषण: रावलपिंडीमें

९ दिसम्बर, १९२४

आरम्भमें, उन्हें जो मानपत्र भेंट किया गया था, उसका उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जबतक मुझको अथवा शौकत अलीको सारे हिन्दुस्तानकी ओरसे बोलने का अधिकार था, तबतक तो हममें से एकको ही मानपत्र देनेसे काम चल जाता था; लेकिन आज:

मुसलमानोंकी ओरसे बोलनेका मेरा अधिकार जाता रहा और शौकत अलीको हिन्दुओंकी ओरसे बोलनेका अधिकार नहीं रहा। यह दुर्भाग्यकी बात है। लेकिन जबतक यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति कायम है, तबतक आपको हम दोनोंको मानपत्र देना चाहिए।

उन्होंने कोहाटकी दुर्घटनापर बोलते हुए कहा:

यह दुर्घटना कैसे हुई और इसमें सबसे अधिक अपराध किसका था, आज यह सब बतानेकी मेरी इच्छा नहीं है। इसका एक कारण यह है कि मेरे पास पूरे तथ्य नहीं हैं। लेकिन इतना तो साफ ही है कि वहाँसे आकर दो-तीन हजार हिन्दुओंने यहाँ रावलपिंडीमें शरण ली है। उन्हें कोहाट छोड़ना पड़ा, इसकी जिम्मेदारी तो हिन्दू और मुसलमान दोनों कौमोंपर है और जबतक वे यहाँ पड़े हैं तबतक दोनों कौमोंकी बदनामी है। यह बदनामी मिटे, इसलिए शौकत अली, किचलू, जफर अली और मैं यहाँ आये हैं। अभी हमें इसमें सफलता नहीं मिली है। इसका कारण यह है कि तीसरी शक्ति भी अपना काम कर रही हैं। इस शक्तिका काम झगड़ा कराना न भी हो तो झगड़ेको बढ़ाना तो है ही, और मेरी जानकारीमें अभीतक ऐसा कोई प्रसंग नहीं आया है जब उसने कोई झगड़ा शान्त किया हो। सच तो यह है कि यदि सरकारने अपने कर्तव्यका पालन किया होता तो कोहाटकी दुर्घटना घटित ही न होती और हिन्दू वहाँसे भागते ही नहीं। वहाँके अधिकारी या तो नामर्द बन गये अथवा उन्होंने अपने कर्त्तव्यके विरुद्ध व्यवहार किया। सरहदी लुटेरे तो