पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/४८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४९
मेरी पंजाब-यात्रा सम्मेलन

आन्दोलन

सम्मेलनके बारेमें सिर्फ यही एक बात उल्लेखनीय है कि विषय-समितिमें और सम्मेलनमें, दोनों जगह, प्रतिनिधियोंने मेरी बड़ी सहायता की। मुझसे भिन्न मत रखनेवालोंने भी बड़े धैर्य से काम लिया। मैंने यह बात इसलिए बतलाई है कि सभापतिकी आज्ञा मानना, अच्छे सार्वजनिक जीवनके विकासके लिए बड़ा आवश्यक है। निस्सन्देह सभापतिके चुनावमें सबसे अधिक ध्यान रखना चाहिए परन्तु जब कोई मनुष्य सभापति बना दिया जाये, तब उसके साथ पूरी शिष्टता बरतनी चाहिए और उसकी आज्ञाका पालन होना चाहिए। किसी बागी, ढुलमुल या पक्षपाती सभापति के साथ पेश आनेका यही उपाय है कि उसके खिलाफ विनयपूर्वक अविश्वाससूचक प्रस्ताव पेश किया जाये और उसे अपने स्थानसे हटा दिया जाये। सुसंगठित समाजमें, व्यक्तिकी नहीं, बल्कि पदकी इज्जत की जाती है। किसी व्यक्तिके शासनमें और सुसंगठित राज्यमें यही बड़ा फर्क है कि दूसरेमें इज्जत पदकी की जाती है, जो राज्य द्वारा अर्थात् जनता द्वारा निर्मित होता है। इस तरह शासक या अध्यक्ष कोई भी क्यों न हो, राज्य बराबर चलता रहता है। दूसरे शब्दोंमें इसका अर्थ यह होता है कि सुसंगठित राज्यका हरएक आदमी अपनी जिम्मेदारी और अपने अधिकारोंको जानता है। प्रत्येक नागरिकके अपने स्वत्वोंको दूसरोंके स्वत्वोंके अधीन मानने के लिए तैयार रहनेपर ही राज्यकी स्थिरता निर्भर है। ऐसा नागरिक जानता है कि अपना फर्ज अदा करनेपर स्वत्व आपसे आप आते हैं। राज्यकी ओरसे प्रत्येक सदस्य द्वारा किये गये त्यागका योगफल ही राज्य है। लेकिन यद्यपि मैं प्रतिनिधियोंको उनकी सावधानी और सज्जनताके लिए धन्यवाद देता हूँ, मैं यह भी कहूँगा कि अब भी हमारी सभाओंके सदस्योंमें आत्मसंयमकी कमी अज्ञात रूपसे बनी हुई है। आम या खास सभाओंके लिए यह अनिवार्य है कि उनमें उपस्थित सज्जन, सबके-सब एक साथ न बोलें या आपसमें कानाफूँसी न करें, बल्कि जो-कुछ कहा जाये उसको ध्यानपूर्वक सुनें। यदि श्रोता ध्यान न दें तो सभाओंका कोई मूल्य नहीं रह जाता। पाठक मेरे इस कथनके औचित्यको तो देखेंगे ही, साथ ही वे यह भी देख सकेंगे कि मैं यह सब स्वार्थ की दृष्टिसे भी कह रहा हूँ। मैं बेलगाँवके लिए क्षेत्र तैयार कर रहा हूँ जो सज्जन बेलगाँवकी कांग्रेसमें और परिषदोंमें शामिल होनेवाले हैं, वे कृपया इस बातका ध्यान रखें।

रविवार तारीख ७ को सवेरे ८ से ११ बजे और संध्या समय ४ से ८ बजे तक, कुल ७ घंटेतक काम होता रहा। विषय-समितिको ६ घंटे लगे। किसीके आनेकी प्रतीक्षा करनेमें समय नष्ट न हुआ, इसलिए सभाका काम बड़ी फुर्तीसे हो सका। परिषद् सम्बन्धी सभी काम निश्चित समयपर किये गये।

दीक्षान्त समारोह

इसके पहलेका दिन यानी ता० ६ दिसम्बर भिन्न-भिन्न दलोंके प्रतिनिधियोंसे मिलने, जुलूसमें शामिल होने---यह जरूरी मगर परेशानीका काम था---और राष्ट्रीय


२५-२९