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३५१. कला और राष्ट्रीय विकास[१]

नवीन राष्ट्रीय जीवनके अभ्युदयके साथ-साथ प्रायः महान् साहित्य और कलाका भी सृजन देखनेमें आता है; इन दोनोंके इस सम्बन्धका अन्वेषण मानव इतिहासके अध्ययनका एक सबसे रोचक विषय है। संगीतको भी, जो साहित्य और कलाके ही परिवारका है, इसी प्रकारको भूमिका निभानी पड़ती है।...

अभी इस प्रश्नपर विचार करना शेष है कि भारतकी वर्तमान राष्ट्रीय जागृतिसे महान् साहित्य और कलाके सृजनकी आशा की जा सकती है या नहीं। भारतके कई प्रान्तोंमें अभी यह आन्दोलन इतना नया है कि हम इस क्षेत्रमें तत्काल कोई परिणाम देखनेकी आशा नहीं कर सकते। लेकिन, जिसने भी बंगालके आधुनिक इतिहासका बारीकीसे अध्ययन किया होगा, उसे इस बातमें क्षण-भर को भी कोई सन्देह नहीं हो सकता कि वहाँ इस सृजन-युगका उदय हो चुका है। इस नवोदयकी साहित्यिक एवं कलात्मक, दोनों ही प्रकारकी कृतियोंमें जन-मानसकी समस्त भावनाएँ बोल उठी हैं।

भारतके दूसरे हिस्सोंमें इस राष्ट्रीय आन्दोलनको आज मुख्यतः वहाँकी मातृभाषाओंके साहित्यमें गुंजित विलक्षण नवोत्थानके स्वरमें देखा जा सकता है।...

दूसरी ओर राष्ट्रीय कार्यक्रममें एक ऐसी वस्तु है, जो पता नहीं क्यों, अभीतक सौंदर्यके विभिन्न रचनात्मक रूपोंमें नहीं ढल पाई है। वह वस्तु है खादी...जो विविधतासे रहित और सर्वथा एक-सी श्वेत होनेके कारण कलात्मक रूचिको तुष्ट नहीं कर पाती। प्राचीन भारतमें वनस्पतियोंसे तैयार होनेवाले विविध रंगोंको एक बार फिर दैनिक उपयोगमें लाया जा सकता है। इस निरभ्र उज्ज्वल आकाशवाले देशको रक्त-वर्ण, हेम-वर्ण, नीलवर्ण आदि मौलिक और कान्तिपूर्ण रंगों और उनके अनेक वर्णान्तरोंसे, जिनमें केवल सूर्यकी किरणें ही सामंजस्य उत्पन्न कर सकती हैं, वंचित नहीं करना चाहिए।...

ऐसा कोई खतरा नहीं है कि रंगोंकी रुचि नष्ट हो जायेगी। मसूलीपट्टमवाले तथा अन्य स्थानोंके लोग इस चीजका पूरा ध्यान रख रहे हैं। राष्ट्रमें संतुलित सुरुचिका विकास होनेसे भड़कीलेपनकी रुचि खत्म हो सकती है और होनी भी चाहिए।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ११-१२-१९२४
  1. सी० एफ० एन्ड्रयूजका यह लेख जिसपर अन्तमें गांधीजीने टिप्पणी लिखी है, यहाँ अंशतः ही उद्धृत किया गया है।