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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कोहाट लौटने का न्यौता देंगे। मैं इस पूरे मामलेके बारेमें पहलेसे कोई राय निश्चित नहीं कर लेना चाहता। मुझे उम्मीद है--और मेरे मुसलमान साथियोंको भी यही आशा है--कि कोहाटके मुसलमान हमें कोहाटकी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओंके बारेमें सही फैसलेपर पहुँचनेका अवसर देंगे। लेकिन इतनी बात तो बिलकुल साफ है कि हिन्दू आज रावलपिंडीमें शरणार्थी बने हुए हैं और यदि वे कोहाटके मुसलमान निवासियोंसे सुरक्षाका पूरा वादा लिये बिना कोहाट लौट गये तो उनके अस्तित्वपर ही बन आनेका खतरा है। यदि मुसलमान लोग हिन्दुओंका स्वागत अपने मित्रोंके रूपमें करनेके लिए अनिच्छुक हैं तो सरकार चाहे जो भी आश्वासन दे, मैं उसे आश्वासन नहीं समझता। वहाँ उनकी विशाल बहुसंख्या है और बिलकुल पासमें ही कई मुसलमान कबीले मौजूद हैं, और इसलिए हर भारतीय---चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान---कोहाटके मुसलमानोंसे यहीं आशा करता है कि वे यदि हिन्दू-मुस्लिम एकता चाहते हैं तो इन शरणार्थियोंको पूरा आश्वासन देकर उन्हें वापस कोहाटमें ले जायेंगे। मैंने शरणार्थियोंसे जो कहा था, यहाँ मैं उसे फिर दोहराना चाहता हूँ।[१]वह यह है कि सीमान्त प्रान्तके हिन्दुओं और मुसलमानोंके भावी सम्बन्ध उन्हींके सही आचरणपर निर्भर हैं। जबतक कोहाटके मुसलमान उन्हें लौटनेके लिए हार्दिक निमन्त्रण और सुरक्षाका पूरा आश्वासन न दें, तबतक न लौटनेमें उन्हींका हित है। इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि तब सारा भारत उनके साथ होगा।

मैंने उनसे यह भी कहा है कि यदि आत्म-सम्मानके साथ उनके लिए कोहाट लौटना असम्भव हो तो उन्हें भारतमें अपने लायक ठीक धन्धा ढूँढ़नेमें जरा भी कठिनाई नहीं होगी। मैंने उनसे यह भी कहा है कि अभी मेरे हाथमें जो काम हैं, उन्हें मैं लगभग २३ जनवरीतक निबटा लूँगा श। और उसके बाद तुरन्त खुशीसे रावलपिंडी आ जाऊँगा और जबतक आवश्यक होगा तबतक उनके पास रहूँगा। लेकिन मुझे पूरी आशा है कि कोहाटके मुसलमान उससे बहुत पहले ही शरणार्थियोंके प्रति अपना दायित्व महसूस कर लेंगे और उनको कोहाट वापस ले जायेंगे। मौलाना शौकत अली इस मामलेमें कोशिश कर भी रहे हैं और सीमान्तके मुसलमानोंके साथ सम्पर्क बनाये हुए हैं।

जब प्रतिनिधिने गांधीजीसे पंजाबमें हिन्दुओं और मुसलमानोंके मतभेदोंके बारेमें अपनी राय बताने या मौजूदा तनावको कम करनेका कोई उपाय सुझानेको कहा तो उत्तरमें उन्होंने कहा:

मैं समझता हूँ कि कोहाटके मामलेमें ऊपर जो वक्तव्य दिया गया है, वह पर्याप्त है। अभी मुझे कोई और ऐसी बात नहीं सूझती कि जो विशेष महत्त्वकी हो। 'यंग इंडिया' के ताजा अंकमें प्रकाशित अपने लेखोंमें मैंने इस प्रश्नका विस्तृत विवेचन किया है। मैंने जो-कुछ लिखा है, उसके अलावा और कुछ भी नहीं कहना चाहता।

  1. देखिए "भाषण: रावलपिंडी में", ९-१२-१९२४।