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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पट्टणी साहबसे विचार-विमर्श कर लेना चाहिए था। ऐसा न करके उसने शिष्टाचारके नियमका उल्लंघन किया है।

पट्टणी साहबका आग्रह है कि इस वर्ष भावनगरमें परिषद् न बुलाई जाये। मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ कि इसकी अनुमति देनेमें उन्हें कठिनाई होगी। उनका कहना है कि यदि परिषद् सोनगढ़में बुलाई जाये तो वे हर तरहकी मदद देनेको तथा उसमें भावनगरकी प्रजाको भाग लेनेके लिए प्रोत्साहित करनेको तैयार हैं। इतना ही नहीं बल्कि आगामी वर्ष होनेवाला सम्मेलन देशी राज्योंकी सीमाके अन्दर बुलाया जा सके, इसका समुचित प्रबन्ध करने तथा इसमें सारी आवश्यक सहायता पहुँचानेको भी वे तैयार हैं। इसके लिए उनकी शर्त केवल इतनी है कि इस वर्षकी परिषद् में होनेवाले भाषणोंमें संयमसे काम लिया जाये। आगामी परिषद् के बारेमें वे कोई शर्त नहीं लगाना चाहते। उन्हें विश्वास है कि परिषद् स्वयं ही मर्यादाका पालन करेगी।

सारी परिस्थितिको देखते हुए मुझे लगता है कि स्वागत-मण्डलके सदस्योंको भावनगरमें परिषद् बुलानेके आग्रहको छोड़ देना चाहिए। उन्हें पट्टणी साहबकी बात मान लेनी चाहिए और परिषद् में मर्यादाका पूरा-पूरा पालन करके अपने आपको सच्चा सत्याग्रही सिद्ध करना चाहिए।

यदि जनता ऐसा करती है तो वह कोई ऐसा काम नहीं करती जिसके लिए उसे लज्जित होना पड़े। इससे सत्याग्रहको कोई बट्टा नहीं लगता और भविष्यके लिए मार्ग भी सरल हो जाता है। परन्तु यदि हम यह मान भी लें कि सब-कुछ उलटा ही होगा---पट्टणी साहब विश्वासघात करेंगे अथवा वे उस समय काठियावाड़ में होंगे ही नहीं अथवा वे आगामी वर्ष देशी राज्योंकी सीमाके अन्दर परिषद् होने देनेके अपने प्रयत्नोंमें असफल सिद्ध होंगे तो भी इससे सत्याग्रहीकी कोई हानि न होगी। सच्चा सत्याग्रही शिष्टता और नम्रता दिखानेको सदा तैयार रहता है और उसे अवसर चूक जानेके कारण पछतावा करनेका मौका कभी आता ही नहीं है। सच्चा सत्याग्रही तो अवसर उपस्थित होते ही कमर कसकर खड़ा हो जाता है।

मोहनदास करमचन्द गांधी

गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू० ६२०४) से।

सौजन्य: नारणदास गांधी