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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करना चाहता हो तो उसकी हत्या करने, इन दो स्थितियोंके बीच चुनाव करना हो वहाँ कर्तव्य-स्थल छोड़कर भाग खड़ा होना नहीं बल्कि इस स्थलपर डटे रहकर मारना और मिटना ही कर्तव्य है। ऐसा भी हुआ है कि बहुत ही लम्बे-तगड़े लोगोंने मेरे पास आकर बड़े सहज-भावसे कह डाला है कि उन्होंने लम्पट मुसलमानोंके हाथों हिन्दू बहनोंका सतीत्व लुटते अपनी आखों देखा। मैं क्या बताऊँ कि उस समय मुझे कितनी ग्लानि हुई है। बहादुरोंके समाजमें यह बात लगभग असम्भव है कि किसीके देखते हुए किसी नारीका सतीत्व लुटे और वह ऐसी कलंक-कथाकी साक्षी भरनेको जीवित रह जाये। ऐसे अपराधकी खबर देनेके लिए एक भी व्यक्तिको जीवित नहीं रहना चाहिए। एक सीधे-सादे पुजारीने, जो अहिंसाका धर्म नहीं समझता था, बड़े उल्लास के साथ मुझे बताया कि एक बार जब मूर्तियोंको तोड़नेके इरादेसे कुछ लोगोंकी भीड़ मन्दिरमें घुस आई तो वह बड़ी होशियारीसे अन्यत्र छिप गया। ऐसे आदमीको मैं पुजारी होने के लायक नहीं मानता। उसे तो अपने कर्त्तव्य-स्थलपर मर मिटना चाहिए था। इस तरह उसने मूर्तिको अपने रक्तसे सींचकर पवित्र बना दिया होता। यदि उसमें इतना साहस नहीं था कि वह ईश्वरसे उन आक्रामकोंके प्रति दया करनेकी प्रार्थना करते हुए स्वयं बलिदान हो जाता तो उनकी हत्या करना भी उसके लिए उचित होता। लेकिन, अपने क्षण-भंगुर शरीरकी रक्षा करनेके लिए इस तरह छिप जाना पुरुषोचित नहीं था। सच तो यह है कि कायरता स्वयं प्रच्छन्न हिंसा है, और चूँकि यह प्रच्छन्न है, इसलिए बहुत खतरनाक है और इसीलिए इसका निवारण भी वास्तविक हिंसासे कहीं अधिक कठिन है। कायर अपनी जानको कभी खतरेमें नहीं डालता। जो हत्या करने को तैयार रहता है, वह अकसर अपनी जानपर खतरा भी लेता है। अहिंसक व्यक्तिका जीवन तो बराबर जो उसे लेना चाहे, उसीके हाथमें रहता है। कारण, वह जानता है कि शरीरके अन्दर जो आत्मा है, वह अनश्वर है। आत्माका निवास-रूप शरीर तो सतत नाशवान है। इसलिए जो व्यक्ति जीवनको परमार्थमें जितना ही लगाता है, वह उसकी उतनी ही रक्षा करता है। इस प्रकार अहिंसाके लिए युद्धके मैदानमें डटे हुए सिपाहीसे अधिक साहस की आवश्यकता है। 'गीता' के अनुसार योद्धा वह है जो खतरेसे सामना पड़नेपर पीठ दिखाना नहीं जानता।

फिर अपरिवर्तनवादी

अपरिवर्तनवादियोंके करुण पत्र अब भी मेरे पास आ रहे हैं। पत्र-लेखकोंने स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है कि वे मानते हैं, मैंने असहयोगको बेच डाला है, लेकिन मेरे प्रति प्रेम-भाव के कारण वे मेरे विरुद्ध विद्रोह नहीं करेंगे। मैं जानता हूँ कि जो अपरिवर्तनवादी स्वराज्यवादियोंके साथ मेरे समझौता करलेने के खिलाफ खुलेआम लिख रहे हैं वे भी बहुत संयमसे काम ले रहे हैं। मेरे साथ जो इतना ज्यादा लिहाज बरता जा रहा हैं, उसके लिए मैं बड़ा कृतज्ञ हूँ। लेकिन जहाँ इस बातसे मुझे खुशी होती है, वहाँ परेशानी भी होती है। मैं उन्हें आश्वस्त कर देना चाहता हूँ कि यदि वे मुझे गलती-पर समझकर मेरा विरोध करेंगे तो मैं उसका किसी भी तरह बुरा नहीं मानूँगा। मेरे प्रति स्नेह-भावके कारण या मेरी गत सेवाओं की वजहसे उन्हें मेरा विरोध करनेमें