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३७१. पत्र: प्रभाशंकर पट्टणीको

बृहस्पतिवार, मार्गशीर्ष वदी ७ [१८ दिसम्बर, १९२४][१]

सुज्ञ भाईश्री,

आपका पत्र मिला। लगता है कि मेरे पत्रमें 'न' शब्द छूट गया था। मेरा कहनेका अभिप्राय तो यह था कि अब [ यदि परिषद् ] सोनगढ़ में न हुई तो यह ठीक न लगेगा। मेरे ऐसा लिखनेका कारण यह था कि एक बार निश्चय कर लेनेके बाद व्यवस्थापकगण केवल सुविधाके लिए उसमें परिवर्तन न करें। यह तो हुआ मेरा निजी विचार। करना क्या है, सो तो आप और परिषद्वाले ही जानें।

मैंने नगरनिगमके अध्यक्षको पत्र लिख दिया है। आपके द्वारा पेश की गई कुछ दलीलें तुरन्त ही गले उतर जायें, ऐसी हैं।

मोहनदासके वन्देमातरम्

गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ३१८६) से।

सौजन्य: महेश पट्टणी

३७२. असहयोगी विद्यार्थी

मैं अकसर सुना करता हूँ कि मेरी कही हुई कुछ बातोंसे असहयोगी विद्यार्थियोंमें खलबली मची हुई है। कुछ विद्यार्थी तो मुझे पत्रोंके जरिये शब्द-बाण भी मार रहे हैं।

मुझे विद्यार्थियोंके किये हुए त्यागपर अभिमान है। मैं जानता हूँ कि विद्यार्थियोंने देशकी सेवा की है। मगर विद्यार्थियोंने बहुत-कुछ किया है तो उससे करोड़ों गुना ज्यादा करना अभी उनके लिए शेष है। त्यागकी हद नहीं होती। जो ऐसा कहे कि इतना त्याग बहुत है, उसके बारेमें तो यही कहना होगा कि उसे घमण्ड हो गया है और इसलिए उसका त्याग बेकार गया। स्वराज्य पूरे त्यागके बाद आयेगा। यही हमारी कसौटी है। जबतक स्वराज्य नहीं मिलता, तबतक त्याग अधूरा ही है।

फिर, जो त्याग दुःख देता है, वह त्याग त्याग नहीं है। जिस त्यागसे मनुष्यका दिल हलका होता है, शान्त होता है, आनन्दित होता है, वही सच्चा, त्याग है। बुद्धके लिए भोग-विलास दुःखदायी बन गया, इसलिए उन्होंने उसका त्याग कर दिया। त्याग ही उनके लिए आनन्दका विषय बन गया, इसलिए वे त्यागके मार्गपर दृढ़ रहे।

  1. यह पत्र प्रभाशंकर पट्टणी द्वारा १७-१२-१९२४ को लिखे पत्रके उत्तरमें भेजा गया था। इस पत्रमें "न" शब्दके छूट जानेकी जिस चूकका उल्लेख है, गांधीजीने वह पत्र १४-१२-१९२४ को लिखा था।