पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/५१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४७७
असहयोगी विद्यार्थी

सरकारी स्कूलोंका त्याग तभी सच्चा है, जब अन्तमें विद्यार्थीको ऐसा लगे कि "हाँ, अब मुझे छुटकारा मिला।" सोनेके पिंजरेमें रहनेवाले तोतेको साँप आदिका कोई खतरा नहीं होता। उसे अपनी खुराक भी नियमित रूपसे मिलती रहती है। इतनेपर भी मालिक पिंजरेका दरवाजा खोल दे तो वह वहाँसे उड़ जायेगा और किसी पेड़की डालीपर बैठकर वहाँ झूलनेमें ही सुख मानेगा। वह जानता है कि अपनी इस आजादी के साथ उसे अब खाना तलाश करनेकी चिन्ता करनी पड़ेगी और अब उसे साँप और बड़े पक्षियोंका डर भी रहेगा। मगर वह इसकी परवाह नहीं करता। सोनेके पिंजरेके साथ और इसके मालिकके साथ, तोतेका यह असहयोग हमेशा निभेगा, क्योंकि तोतेने त्यागको--असहयोगको- --सुख माना है। मालिकका प्रेम उसे स्वार्थमय मालूम होता था। मालिकके यहाँ मिलनेवाली सुविधा उसके लिए असुविधाके समान थी। तोता समझता था कि आजादीकी कोई कीमत नहीं हो सकती। रत्न-जटित पिंजरा भी आखिर है तो पिंजरा ही; तोतेका ऐसा दृढ़ विश्वास हो गया था, इसीलिए पिंजरा खुलते ही वह उड़ गया।

जिन विद्यार्थियोंने सरकारी स्कूलोंको मोह-जाल समझकर छोड़ा होगा, उन्हें वे सोनेके लगें तो भी वे वहाँ वापस नहीं जायेंगे---फिर भले ही उनके लिए स्वतन्त्र विद्यालय हों या न हों। ऐसे त्यागी विद्यार्थियोंको ही सरकारी स्कूलोंसे बाहर रहने का अधिकार है। असहयोग मुल्तवी रहनेका अर्थ यह है कि असहयोगकी कीमत जिनकी समझमें अभीतक न आई हो, उन्हें असहयोगको छोड़नेकी सहूलियत मिले और अगर वे असहयोग छोड़ दें तो इसे कोई अकीर्तिकर न माने, न कोई उसकी निन्दा करे। जो त्याग हमें असह्य लगे, भूल-भरा लगे, उस त्यागसे हमें फायदा नहीं होता। ऐसे त्यागियोंपरसे कांग्रेसका नियंत्रण हट जायेगा और वे निस्संकोच वापस सरकारी स्कूलोंमें जा सकेंगे।

मगर जिन्हें सरकारी स्कूल कैदखाने-जैसे लगें, वे तो जबतक स्वराज्य नहीं मिले, तबतक--मृत्युपर्यन्त भी--अपना त्याग निभायेंगे। इस तरह विद्यार्थियोंके लिए और दूसरे असहयोगियोंके लिए भी सवाल तो जो पहले था, वहीं आज भी है। अब फर्क सिर्फ इतना ही है कि जिनके लिए कांग्रेसके प्रस्तावकी ही पाबन्दी थी, वे उससे मुक्त हो जायेंगे। लेकिन जो अपनी आत्माके बन्धनसे बँधे थे और जो आत्माकी आवाजके वश होकर इसमें पड़े थे, उनके लिए पाबन्दी कायम ही हैं।

इस तरह सरकारी शिक्षा और राष्ट्रीय शिक्षाका भेद काल्पनिक है, क्योंकि यहाँ कोई सिद्धान्त-भेद नहीं है। सिद्धान्त-भेद तो झण्डेका है, स्वामित्वका है। मेरे घरमें पकनेवाली रोटी और दूसरेके घरमें बननेवाली रोटी भले ही एक किस्मकी हो, फिर भी दूसरेके घरमें पकनेवाली रोटी दूसरेकी है, इसलिए उसे लेना चोरी है और इसलिए वह त्याज्य है। कैदखानेमें घरके जैसा खाना मिलता हो तो भी कैदखानेका खाना त्याज्य है। इसी तरह जिस विद्यार्थीको सरकारी स्कूल कैदखाने-जैसा न लगे, उसके लिए उसमें वापस चला जाना उचित है। उसकी आलोचना करनेका दूसरोंको अधिकार नहीं है। एकके लिए जो चीज कैद-जैसी हो, वही दूसरेके लिए आजादी-जैसी हो सकती है।