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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सच्चा आन्दोलन विचारको बदलनेवाला होता है। आचार विचारके पीछे आता ही है। मगर बिना विचारका आचार विचारशील लोगों को बोझ-सा लगता है; और विचारशून्य लोगोंके लिए उसमें न कोई नफा है, न नुकसान। विचारशून्य लोग दूसरेकी नकल करते हैं; और आम तौरपर हम विचारशून्य होते हैं। इसीलिए भक्तोंने सत्संगकी महिमाका बखान किया है।

अब जमाना सोच-समझकर असहयोग करनेका ही रह गया है। कांग्रेस वगैरह की बाहरी पाबन्दियाँ दवाकी पुड़ियाकी तरह थोड़े समयके लिए उपयोगी हो सकती हैं। तीन-चार सालके प्रयोगके बाद आज हम देखते हैं कि बहुत-से विद्वान् लोगोंके मनमें विद्यालयों के असहयोगके बारेमें संशय है। अगर उन्हींकी राय मानी जाये तो उनका बहुमत सरकारी स्कूलोंके छोड़नेके खिलाफ ही निकलेगा। ऐसे प्रतिकूल वातावरणमें थोड़े ही विद्यार्थी स्वतन्त्र विचार करके अपना असहयोग कायम रख सकते हैं।

ऐसे थोड़े-से विद्यार्थियों की मदद करना राष्ट्रीय विद्यालयोंका काम है। मैं कुलपति माना जाता हूँ। इस जगहके लिए मेरी योग्यताका आधार मेरी विद्वत्ता तो किसी तरह नहीं है। मुझमें कुलपतिकी योग्यता हो भी तो उसका कारण असहयोगीके रूपमें मेरी विशेषता ही हो सकती है। इसलिए अगर मैंने पढ़ाईके सिलसिलेमें असहयोगको बल पहुँचानेवाले अंगोंपर ज्यादा जोर दिया है तो वह क्षम्य ही नहीं, स्तुत्य माना जाना चाहिए।

मगर मेरी इस स्थितिका अर्थ यह लगाया गया है कि मैं पढ़ाई-लिखाईका, विद्वत्ताका शत्रु हूँ। सच तो यह है कि बात इससे उलटी है। मैं नहीं चाहता कि राष्ट्रीय विद्यालयोंमें पढ़ाई-लिखाई बन्द करके सिर्फ कातना-पींजना ही सिखाया जाये या कराया जाये। मैं तो चाहता हूँ कि विद्यार्थियों को पूरा और उचित अक्षर-ज्ञान दिया जाये। मैं चाहता हूँ कि वे पढ़ने-लिखनेमें सरकारी स्कूलोंके विद्यार्थियोंसे होड़ ले सकें।

मगर मुझे सिर्फ अक्षर-ज्ञानसे ही संतोष नहीं। सरकारी स्कूलोंमें केवल नौकरीका, गुमाश्तागिरीका उद्देश्य सामने रखकर हमें सिर्फ पढ़ना-लिखना ही सिखाया जाता है। राष्ट्रीय पाठशालाओंका हेतु स्वराज्य, स्वतन्त्रता, स्वावलम्बन है, इसलिए विद्यार्थियोंको अक्षरज्ञानके साथ-साथ हृदय-बलकी और शारीरिक श्रमकी तालीम भी दी जानी चाहिए। राष्ट्रीय पाठशालाओंमें स्वराज्यके लिए पोषक बातें होनी चाहिए। राष्ट्रीय स्कूलों में पढ़ाई-लिखाईको साध्य समझने के बजाय उसे चरित्र-बल बढ़ानेका और स्वराज्यके कार्यका साधन समझना चाहिए। हृदय-बल प्राप्त करनेकी शिक्षा देनेके लिए हृदय-बलवाले शिक्षक चाहिए और चूँकि चरखा स्वराज लेनेका एक जबरदस्त साधन है, इसलिए जिस राष्ट्रीय विद्यालयमें चरखेका सम्मानपूर्ण स्थान न हो, उसे मैं राष्ट्रीय हरगिज नहीं मान सकता। कांग्रेसने अपने प्रस्तावोंमें चरखेको खूब महत्त्व दिया है। यह सुच है कि इन प्रस्तावोंको पास करनेवाले उनपर अमल नहीं करते। जो प्रस्ताव कांग्रेसने पास किये हैं, उनपर अगर सदस्योंने ही पूरी तरह अमल किया होता तो आज हम स्वराज्य लेकर शान्तिसे बैठ गये होते या स्वराज्यके द्वारके चमकीले तोरण हम बड़ी आतुरतासे निहारते होते। लेकिन सदस्योंकी सुस्ती और बेवफाई असहयोगी विद्यार्थियोंके-लिए दृष्टान्तरूप नहीं हो सकती। बच्चे बड़ोंसे होड़ करने लगेंगे तो मर जायेंगे।