पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/५१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४७९
भाषण: अपरिवर्तनवादियोंके समक्ष

तुलसीदासजी ने कहा है कि 'समरथ को नहि दोष गुसाईं'। लेकिन हम प्राकृत जन अगर समर्थ बनने चलें तो हमारा नाश हो जाये। जिस राष्ट्रीय विद्यालयमें हिन्दी, उर्दू सिखाना अनिवार्य न हो, वह राष्ट्रके लिए पोषक नहीं है। जो राष्ट्रीय विद्यालय अन्त्यजोंका बहिष्कार करे, उस विद्यालयके बन्द हो जानेमें ही देशका भला है। राष्ट्रीय विद्यालयमें हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सभी जातियोंके विद्यार्थियोंको सगे भाइयोंकी तरह पढ़ना चाहिए। मेरे खयालसे ये सब बातें राष्ट्रीय विद्यालयके चिह्न हैं। इसमें मुझे शक नहीं कि राष्ट्रीय शिक्षाके लिए जो चीख-पुकार मचाई जा रही है वह बहुत हदतक बिना सोचे-समझे ही मचाई जा रही है। पढ़ाईकी किताबोंमें फेर-बदल, इतिहास आदि पढ़ाने के तरीकों में नवीनता लानेकी बातें गौण हैं। उनके लिए बेशुमार पैसा नहीं खर्च किया जा सकता, अलग संस्थाएँ नहीं खोली जा सकतीं। कोशिश करनेसे ऐसे फेर-बदल सरकारी स्कूलोंमें भी कराये जा सकते हैं। ऐसे फेरबदलके अभावमें सरकारी स्कूलोंको छोड़ना शोभा नहीं दे सकता, सम्भव भी नहीं हो सकता। सरकारी स्कूलोंके त्यागके कारणोंपर तो मैं विचार कर ही चुका हूँ। सरकारी पाठशालाओं और राष्ट्रीय पाठशालाओंमें जो फर्क रहना चाहिए, उसपर भी मैं नजर डाल चुका हूँ। इसी फर्क में व्यवस्थापकोंकी, शिक्षकोंकी और विद्यार्थियोंकी कसौटी है। यह फर्क असहयोगकी बाहरी निशानी है। असहयोगमें इसके अलावा दूसरी बहुत-सी बातें भले ही हों, मगर जिसमें ये चिह्न नहीं, वह असहयोग असहयोग हो ही नहीं सकता।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २१-१२-१९२४

३७३. भाषण: अपरिवर्तनवादियों के समक्ष[१]

२१ दिसम्बर, १९२४

रविवार को फिर एक सम्मेलन हुआ। उसमें गांधीजी और अपरिवर्तनवादियोंके बीच आगे विचार-विमर्श हुआ।...कहा जाता है कि गांधीजीका भाषण अत्यन्त ही मर्मस्पर्शी था। ऐसा लगता था, मानो उन्होंने उसमें अपना समूचा हृदय उँडेल दिया हो।...उन्होंने कहा; मैं आज भी उतना ही कट्टर अपरिवर्तनवादी हूँ जितना कभी भी था और कौंसिलोंसे मुझे कोई सरोकार नहीं है। कौंसिल-प्रवेशके विकल्पके रूपमें मुझे चरखा, हिन्दू-मुस्लिम एकता और अस्पृश्यता-निवारणसे अधिक सशक्त अन्य कोई भी कार्यक्रम नहीं सूझ पड़ता। मैं ऐसी कई चीजें सोच सकता हूँ जो देशके लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं, लेकिन वे स्वराज्य-प्राप्तिके लिए अपरिहार्य नहीं हैं। मैंने इसीलिए कहा है कि चरखेका प्रचार एक ऐसा कार्यक्रम है, जिसपर

  1. यह भाषण बेलगाँवमें दिया गया था।