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अहुरमज्द और अहरमन

हम लोगोंकी बातपर तबतक विश्वास करें जबतक हमें उनपर अविश्वास करनेका कोई निश्चित कारण न मिल जाये।

इसलिए मैं किसका विश्वास करूँ या किसका न करूँ, यह मेरी कठिनाई नहीं है। मेरी कठिनाई तो यह है कि मुश्किलसे कोई आधे दर्जन अपरिवर्तनवादी ही ऐसे हैं, जो समझौतेसे पूर्णतया या कुल मिलाकर सन्तुष्ट हैं। उनके सन्देह ईमानदाराना हैं, मुझे उनसे सहानुभूति है, किन्तु फिर भी मैं अनुभव करता हूँ कि समझौतेपर कायम रहकर मैं ठीक ही कर रहा हूँ। यदि वे मुझे छोड़ सकते तो छोड़ देते, किन्तु वे मुझे छोड़ नहीं सकते। यह सम्बन्ध अटूट जान पड़ता है। अपना मत विरुद्ध होते हुए भी वे मेरे विवेकपर भरोसा करना चाहते हैं। इससे मुझे सचमुच बड़ा संकोच महसूस होता है। इससे मेरी जिम्मेदारी सौगुनी बढ़ जाती है। मैं उन्हें भरोसा दिलाता हूँ कि मैं जान-बूझकर तो ऐसा कुछ नहीं करूँगा जिससे उनके विश्वासको आघात पहुँचे। मैं ऐसा कोई काम न करूँगा जिससे देशके उद्देश्य और सम्मानको नुकसान पहुँचे। किन्तु मैं उन्हें अधिकतम सान्त्वना यही दे सकता हूँ कि यदि वे अपने प्रति ईमानदार रहेंगे तो सब कुछ ठीक ही होगा। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष यदि हिन्दू-मुस्लिम एकता की शर्तपर अमल करेगा, यदि वह अपने बचे हुए समयका उपयोग रुई पींजने, सूत कातने और खादीकी कलामें निपुण होनेमें करेगा, यदि वह स्वयं खादी पहनेगा और यदि वह हिन्दू है तो अपने अछूत भाइयोंसे आत्मवत् प्रेम करेगा तो इतनेसे ही ऐसा माना जायेगा कि उसने अपने प्राथमिक कर्तव्यका पालन किया। इतना कार्य तो हममें से हरएक बिना किसीकी सहायताके कर सकता है। किसी बातको अपने आचरणमें उतारना ही उसके पक्षमें दिया गया सबसे अच्छा भाषण है और उसके लिए किया गया सबसे अच्छा प्रचार है। यह काम हर व्यक्ति कर सकता है तथा इसमें कोई विघ्न-बाधा भी नहीं डालेगा। दूसरोंकी चिन्ता न करना अहुरमज़्दका तरीका है। अहरमन हमें हमारे विश्वाससे डिगाकर अपने जालमें फँसाता है। ईश्वर काबा या काशीमें नहीं है। वह तो हम सबके भीतर है। इसलिए स्वराज्य भी हमें अपने भीतर खोजनेसे ही मिलेगा। यदि हम दूसरोंसे या अपने साथी कार्यकर्त्ताओंसे भी यह आशा करें कि वे स्वराज्य लेकर हमें दे देंगे तो हमारी यह आशा व्यर्थ होगी।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २६-१२-१९२४