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सकती है। यह विचार भ्रमपूर्ण है कि स्वच्छता-सम्बन्धी सुधार करनेके लिए, बहुत अधिक धनकी आवश्यकता है। हमें स्वच्छताके पाश्चात्य तरीकोंको अपनी आवश्यकताओंके अनुरूप बदल लेना चाहिए; और चू़ँकि मेरी देशभक्ति ग्रहणशील है, उसमें सबके लिए गुंजाइश है और किसीके प्रति वैर-भाव या द्वेष-भाव नहीं है, अतः मैं पाश्चात्य भौतिकतासे घृणा करनेपर भी उसमें जो कुछ मेरे लिए लाभप्रद है उसे ग्रहण करनेसे नहीं झिझकता। और चूँकि मैं यह जानता हूँ कि अंग्रेजोंमें सूझबूझ है; इसलिए मैं उनसे ऐसे मामलोंमें कृतज्ञतापूर्वक सहायता लेनेका प्रयत्न करता हूँ। उदाहरणके लिए मनुष्यके मैलेको ठिकाने लगानेका सबसे कम खर्चीला और सबसे ज्यादा कारगर तरीका मुझे श्री पूअरसे मालूम हुआ है। उन्होंने हमें बताया है कि हम अज्ञान अथवा पूर्वग्रहके कारण इस अत्यन्त उपयोगी खादको नष्ट कर देते हैं। मनुष्यके मैलेको उचित जगह पर डाला जाये और उसका उचित उपयोग किया जाये तो वह बेकारकी गन्दगी नहीं होगी। अंग्रेज कहते हैं, गन्दगी अनुपयुक्त स्थानपर रखे हुए पदार्थका ही नाम है।

दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय

दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय प्रवासियोंके इर्द-गिर्द की सर्प-कुण्डली दिन-प्रतिदिन कसती ही जा रही है। अब नेटालमें भारतीयोंको नगरपालिका -सम्बन्धी मताधिकारसे भी वंचित कर दिया गया है। कहा गया था कि उनके इस अधिकारकी रक्षा की जायेगी। जब उनसे राजनीतिक मताधिकार छीननेका प्रयत्न किया गया था, तब नेटाल सरकारने घोषणा की थी कि भारतीय जिस नगरपालिका-सम्बन्धी मताधिकारका उपभोग कर रहे हैं, उसे उनसे छीननेका उसका कोई विचार नहीं है। किन्तु आधुनिक सरकारों की दृष्टिमें एक दुर्बल पक्षको दिया गया कोई भी वचन पालनीय नहीं होता। प्रत्येक पक्षको अपनी ही शक्तिके बलपर अपने अधिकारों की रक्षा करनेमें समर्थ होना चाहिए। भारत सरकार भारतीयोंकी संरक्षक होनेकी जो गर्वोक्ति करती रही है, वह इस संकटके अवसरपर काम नहीं आई। मैं जानता हूँ कि प्रवासी हमसे सहायता और संरक्षणकी अपेक्षा रखते हैं। किन्तु उन्हें जानना चाहिए कि उन्हें फिलहाल भारतसे कोई सहायता नहीं मिल सकती। भारत तो स्वयं जीवन-मृत्युके संघर्षमें लगा हुआ है। सालों पहले स्वर्गीय फीरोजशाह मेहताने भविष्यवाणी की थी कि भारत समुद्र-पारके भारतीयोंको तबतक कोई खास सहायता नहीं दे सकता, जबतक उनमें स्वयं अपने अधिकारोंकी रक्षा करनेकी सामर्थ्य नहीं आ जाती। स्व० पेस्तनजी पादशाको मेरा दक्षिण आफ्रिका जाना बिलकुल ही नापसन्द था। उनका खयाल था कि यदि कोई भारतीय कार्यकर्त्ता भारतसे बाहर जाता है तो वह उस हदतक हमारी राष्ट्रीय शक्तिका अपव्यय है। मेरा खयाल है कि यद्यपि श्री पादशा बड़े स्पष्टदर्शी थे, फिर भी इस बारेमें उनका सोचना ठीक नहीं निकला। मैं दक्षिण आफ्रिकामें रहा, इससे मेरी शक्तिका अपव्यय नहीं हुआ। किन्तु श्री पादशाकी तीव्र इच्छा थी कि पहले भारतकी स्वतन्त्रता हासिल की जाये। क्या इस इच्छाके मूलमें एक बहुत बड़ी सचाई नहीं है? जबतक हमें यह स्वतन्त्रता नहीं मिलती, तबतक