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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हम अपने समुद्र-पारके भाइयोंको समाचारपत्रों द्वारा और अन्य प्रकारसे सहानुभूति प्रकट करके जो-कुछ सान्त्वना दे सकते हैं, वह देते रहें; और तबतक हम इतना ही भर कर सकते हैं।

एक नमूना

मैं नीचे बाबू हरदयाल नागका पत्र देता हूँ:[१]


बाबू हरदयाल नाग एक पुराने असहयोगी हैं। उनका रुख बहुत-से अपरिवर्तनवादियोंके रुखका नमूना है। उनके-जैसे विचार हैं, उनको देखते हुए, मैं उनके बेलगाँव न जानेके निर्णयकी पुष्टि ही कर सकता हूँ। सच कहूँ तो असहयोगके स्थगनकी बातपर उन्होंने जो रोष प्रकट किया है, मैं उसकी भी कद्र करता हूँ। ऐसा रोष और भी अधिक लोग प्रकट करते तो अच्छा होता। मैं राष्ट्रीय पैमानेपर चालू असह- योगको स्थगित करनेकी सलाह इसलिए नहीं दे रहा हूँ कि यह मुझे कोई बहुत अच्छा लगता है। परिस्थितियोंने मुझे ऐसा करनेको विवश कर दिया है। आवश्यक हो तो उसमें विश्वास रखनेवाले व्यक्ति इसे फिरसे राष्ट्रीय रूप दिला सकते हैं। इसके लिए उन्हें अपने व्यवहार द्वारा इसकी सामर्थ्य दिखानी होगी और साथ ही स्वयं अहिंसक भी बने रहना होगा। मैं बाबू हरदयाल नागसे और उनके-जैसे विचारके लोगोंसे यह कहना चाहता हूँ कि वे अपने विरोधियोंपर दुष्टताका आरोप न लगायें। इसमें सबसे अच्छा नियम यही है कि लोग तुम्हारे बारेमें फतवे न दें, इसलिए लोगोंके बारेमें फतवें मत दो। हम जिन्हें धूर्त कहते हैं, वे प्रायः इसका ऐसा ही उत्तर देते हैं और बदलेमें हमपर यही आरोप लगाते हैं। किन्तु इस सम्बन्धमें भी मैं इस मान्यताको स्वीकार करता हूँ कि यदि कोई किसीको इतना दुष्ट समझे कि उसे सुधारके अयोग्य माने तो उसे अवश्य ही उससे असहयोग करना होगा। क्योंकि दुर्भाग्यवश बहुत-सी बातें केवल व्यक्तिकी मानसिक स्थितिसे नियन्त्रित होती हैं। यदि मैं भ्रमवश रस्सीको साँप मान लूँ तो सम्भव है, मैं भयसे पीला पड़ जाऊँ। इसपर समीप खड़ा कोई व्यक्ति जो जानता है कि यह तो साँप नहीं, रस्सी है, हँसेगा ही।

  1. यह पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। इसमें बाबू हरदयाल नागने बेलगांव कांग्रेसमें शामिल होनेकी अपनी असमर्थताके कारण बताये थे। उन दिनों सभा-सम्मेलनोंकी जो स्थिति हो गई थी, उसके कारण उन्हें उनमें कोई उपयोगिता दिखाई नहीं देती थी। वे कट्टर असहयोगी थे और असहयोगका स्थगित किया जाना उन्हें पसन्द नहीं था। असहयोगको स्थगित करके स्वराज्यवादियोंके साथ सहयोग करना वे बुराई और शैतानीके साथ सहयोग करना मानते थे। दूसरी ओर वे गांधीजीके खिलाफ मत भी नहीं देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने वहाँ न जाना ही ठीक समझा। उन्होंने बहुमतके निर्णयमें अपनी आस्था व्यक्त करते हुए कहा था कि बहुमतसे जो निर्णय होगा वह उन्हें मान्य होगा ही। इसके अलावा उन्हें अपने खद्दरके कामकी भी बड़ी चिन्ता थी और उसे कुछ समयके लिए भी वे छोड़ना नहीं चाहते थे---विशेषकर इस कारणसे कि उनके कथनानुसार बंगाल कांग्रेसके स्वराज्यवादियोंके हाथमें होनेके कारण खदरकी ओर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा था। उन्होंने कहा था कि इसी कारण वहाँ राष्ट्रीय पाठशालाओंकी भी स्थिति बहुत बुरी थी। अन्तमें उन्होंने गांधीजीको बंगाल आकर वहाँके कट्टर असहयोगियोंसे बातचीत करनेको आमंत्रित किया था।