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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं आपको सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि आज हमारे सामने ऐसा मौका आ गया है कि हम जो १९२०-२१ में करना चाहते थे वह न कर सके; लेकिन उसके बदले हमारे अन्दर मतभेद, दुश्मनी पैदा हो गई है। हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरेको दुश्मन मानते हैं और एक-दूसरेको मारा-पीटा करते हैं। यह कोई स्वराज्य लेनेका ढँग नहीं है। बात समझानेकी कोई जरूरत नहीं है। हम हिन्दू अपनी अस्पृश्य जातिको घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं। हम उसके छूनेमें पाप समझते हैं, ऐसा मानकर हम उसको अशुद्ध समझते हैं। लेकिन खुदाके सामने, ईश्वरके सामने हम बड़ा भारी गुनाह करते हैं। यह ठीक है कि हमने पिछले वर्षोंसे, ३-४ वर्षसे, मान लिया है कि बड़े-छोटे हरएकको चरखा चलाना चाहिए और, हम हैं कांग्रेसमें, ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटीमें कहते आये हैं कि हम चरखेसे स्वराज्य लेनेका इरादा रखते हैं। जब मैं पूनामें गया था--इस आन्दोलनमें---मैंने एक सभामें कहा था[१] कि लोकमान्यने हमें एक श्लोकार्थ दिया है। वह यह है कि 'स्वराज्य मनुष्यका जन्म-सिद्ध अधिकार है।' मैं इस श्लोकको पूरा करनेके लिए पैदा हुआ हूँ, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं यही फिर कहता हूँ। अगर हम स्वराज्य चाहते हैं तो उसका रास्ता चरखा है, सूत है, खद्दर है। मुझे यह जानते हुए अफसोस होता है कि आप इसे जानते हैं, मगर इसपर चलते नहीं। पर मैं इसके सिवा न कुछ जानता हूँ और न सोच ही सकता हूँ। इससे मैं आप भाइयों और बहनोंको कहता हूँ कि मेरा आपके सामने उपस्थित होना और भाषण देना निरर्थक है। मेरा दिल यह कहता है कि यह निकम्मा काम है। और यों करना आपका और मेरा अपना वक्त भी---जो मैं समझता हूँ, अमूल्य है--खराब करना है। अमूल्य इसलिए कि मैं अपनेको खुदाका बन्दा मानता हूँ। मैं जानता हूँ कि स्वराज्य इस तरह नहीं मिलेगा। मौलाना मुहम्मद अलीकी बेगम साहबा कहती थीं कि जब-जब मैं कांग्रेसमें आती हूँ तो एक सप्ताह के लिए मालूम होता है कि हमें स्वराज्य मिल गया है। इसका मतलब यह है कि हम स्वराज्यका नाटक रचते हैं, जैसे कि हरिश्चन्द्रका अभिनय देखते हैं। हकीकत यह है कि उसमें हरिश्चन्द्र नहीं होता। जो हरिश्चन्द्रका अभिनय करता है वह सत्यवादी है या नहीं, वह हम नहीं जानते। इसी तरह स्वराज्यका जलसा भी एक नाटक हो गया है।

इसलिए मैं आप भाइयोंसे कहना चाहता हूँ कि देशबन्धुदास एक प्रस्ताव रख रहें हैं; अगर आप उसको मानते हैं तो स्वीकार करें, अगर नहीं मानते हैं तो अस्वीकार कर दें। इसमें हिन्दू-मुसलमान ऐक्यकी बात नहीं है; न इसमें अस्पृश्यताका उल्लेख है। इसमे एक ही बात लिखी है कि हम चरखा चलाना चाहते हैं। और आप लोग जो यहाँ प्रतिनिधि होकर आये हैं अछूत, ईसाई, अथवा अन्य कोई भी हों---उनके प्रतिनिधि होकर आये हैं और अगर आप मुहम्मद अली और दासकी प्रतिज्ञा माननेवाले हैं तो मैं आप सबसे चाहता हूँ कि आप जो कुछ करना चाहते हैं, ईश्वरको दरम्यान रखकर करें। अगर आपका दिल मानता है कि यह बात ठीक नहीं है, गांधी आपको धोखेमें डालता है तो आप इसे अस्वीकार कर दें, त्याग कर दें। अगर आप भाइयोंने ऐसी प्रतिज्ञा की,

  1. देखिए "भाषण: पूनाकी सार्वजनिक सभामें", ४-९-१९२४।