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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उसे पश्चात्ताप करनेकी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उससे कोई भूल हो ही नहीं सकती। उसे बहस करने की भी आवश्यकता नहीं। मैं तो आप-जैसा ही भला या बुरा एक मर्त्य प्राणी हूँ। और इसलिए मैं चाहता हूँ कि इस प्रस्तावसे मेरे व्यक्तित्वको अलग रखकर ही आप अपने उत्तरका निश्चय करें।

यह प्रस्ताव अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मैं जानता हूँ कि बहुत-से ऐसे लोग हैं, जिनके विचार इसके विरुद्ध हैं। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं: "यह उचित नहीं कि हम अपना सम्पूर्ण विश्वास कातनेमें ही रखें।" कुछ दूसरे लोग कहते हैं, "कातना अच्छा तो है, लेकिन इस कष्टकर कार्यको बहुत लम्बे अरसेतक करते रहनेके बाद ही इसका परिणाम निकल सकता है।" तीसरी तरहके लोग कहते हैं: "यद्यपि खद्दर और हाथ-कताई, दोनों ही अपने आपमें अच्छे हैं; तथापि राष्ट्रीय मताधिकारमें उनके लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।" किन्तु मेरे विचार इनसे बिलकुल भिन्न हैं। और मेरा यह विश्वास दिन-प्रतिदिन इतना अधिक बढ़ता जा रहा है कि यदि मेरा सारा समय मेरे अपने हाथमें होता तो मैं हर समय कातता ही रहता और अनुभव करता कि चरखेके प्रत्येक चक्करमें स्वराज्य अधिकाधिक हमारे निकट आ रहा है। इस चक्करसे स्वराज्य हमारे अधिकाधिक निकट आ रहा है। चरखेकी इस गतिको ३० करोड़से गुणा करके आप सोचिए कि उससे स्वराज्य प्राप्त करनेके लिए कितनी गति, कितनी शक्ति पैदा हो जायेगी। किन्तु आपको यह शक्ति तभी मिलेगी जब आपके हृदयमें भी स्वराज्यको सुलभ करानेकी उसकी क्षमतामें मेरे समान ही विश्वास हो।

मैंने अपने भाषणमें बहुत-सी बातें कहीं हैं। श्रीमती सरोजिनी देवीने मुझे एक बात की चर्चा करनेके लिए कहा है। मेरे मनमें उनके प्रति बहुत आदर है, क्योंकि उन्होंने दक्षिण आफ्रिकामें बड़ी शानदार सेवा की है। इसलिए मैं उसका खयाल करके अब उनकी बातकी चर्चा करता हूँ। वह है हिन्दू-मुस्लिम एकता। मौलाना शौकत अली कहते हैं: "मैं इस सारे कामसे तंग आ गया हूँ। हमें हिन्दू-मुस्लिम दंगोंकी, चाहे वे कहीं भी हों, परवाह नहीं करनी चाहिए। उस बड़े सिरमें बुद्धित्व भी काफी है, सच मानिए, उसमें सिर्फ चरबी ही नहीं है। (हँसी) बार-बार उन्होंने कहा है: "ये मेरे मुसलमान भाई जड़बुद्धि हो गये हैं। वे पागल हो गये हैं। इसी प्रकार आपके हिन्दू भी जड़बुद्धि हो गये हैं। हम उनके झगड़ोंका फैसला करनेकी कोशिश कर रहे हैं और हमारी इस कोशिशमें स्वराज्य हमारे हाथोंसे खिसक रहा है। इसलिए हमें उन्हें उनके हालपर ही छोड़ देना चाहिए।" किन्तु मैं वैसा कैसे कर सकता हूँ? मैं तो हिन्दू-मुस्लिम एकताके लिए भी, चरखेके समान ही पागल हूँ। यह मेरी उत्कट अभिलाषा बन गई है। मैं इसे न तो छोड़ ही सकता हूँ और न इसे भुला ही सकता हूँ। इस प्रकार आप जानते हैं कि मैं उस छोटी-सी लड़की गुलनारपर मुग्ध हो गया हूँ। आप पूछ सकते हैं: यह आदमी उस लड़कीपर क्यों मुग्ध है? "मैं कहूँगा: इसका एक कारण है।" यह लड़की जब बड़ी होगी तब वह सोचेगी: एक गांधी था; वह सनातनी हिन्दू होनेपर भी, मेरे साथ मांस न खानेपर भी, स्वयं गो-मांस न छूनेपर भी और गो-पूजक होनेपर भी, जो लोग गो-मांस खाना पसन्द करते हैं