पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/५४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५०५
अध्यक्षीय भाषण: बेलगाँव कांग्रेसमें

तरीका वह अब छोड़ चुकी है। इसकी वजह यह थी कि उसका यह विश्वास बिलकुल उठ गया था कि वर्तमान शासन-प्रणाली किसी भी अंशमें लाभकारी है। मुसलमानोंके साथ सरकारने जो वचन-भंग किया उसने लोगोंके विश्वासको पहला सख्त धक्का पहुँचाया। रोलेट कानून और ओ'डायरशाहीने, जो कि अपना रंग जलियाँवाला बागके कत्लेआममें लाई, लोगोंपर इस प्रणाली (निजामकी) की असलियतका भेद प्रकट कर दिया। इसके साथ ही लोगोंने इस बातको जाना कि इस मौजूदा हुकूमतका दारोमदार उनके सहयोगपर है, फिर चाहे वे यह सहयोग अपनी मर्जीसे दे रहे हों या मजबूरन और जान-बूझकर दे रहे हों या अनजाने। इसलिए मौजूदा शासन-प्रणालीको सुधारने या मिटानेके उद्देश्यसे यह तय किया गया कि जिस हदतक लोग अपनी रजामन्दीसे सहयोग कर रहे हैं, उसका हटाना शुरू करनेकी कोशिश करें और उसका प्रारम्भ ऊपरकी श्रेणीसे किया जाये। सन् १९२० में कलकत्तेमें कांग्रेसकी जो खास बैठक हुई थी, उसमें सरकारी खिताबों, अदालतों, शिक्षालयों, विधानसभाओं और विदेशी कपड़ेके बहिष्कारके बारेमें प्रस्ताव पास हुए। इन तमाम बहिष्कारोंपर कम या ज्यादा दर्जेतक उन लोगोंने अमल किया जिनका उनसे ताल्लुक था। और जिनके लिए ऐसा करना मुमकिन नहीं था या जो इसके लिए राजी नहीं थे, वे कांग्रेससे अलग हो गये। यहाँ मैं आपके सामने असहयोग आन्दोलनके रंग-बिरंगे इतिहासका चित्र नहीं खींचना चाहता। इतना कहना काफी होगा कि यद्यपि किसी भी एक बहिष्कारमें पूरी-पूरी कामयाबी नहीं हुई तो भी इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिन-जिन चीजोंका बहिष्कार किया गया, उन सबकी इज्जत लोगोंके दिलोंसे जरूर ही उठ गई।

सबसे महत्त्वपूर्ण बहिष्कार, हिंसाका बहिष्कार था। यद्यपि एक वक्त ऐसा मालूम होने लगा था कि यह पूरी तरह सफल हो गया तथापि थोड़े ही अरसे में यह पता लग गया कि हमारी अहिंसा बहुत कच्ची बुनियादपर खड़ी थी। हमारी अहिंसा लाचार लोगोंकी निष्क्रिय अहिंसा थी, न कि हिकमती और जानकार आदमीकी प्रबुद्ध अहिंसा। नतीजा यह हुआ कि जो लोग असहयोग आन्दोलनमें शरीक नहीं हुए थे उनके खिलाफ असहिष्णुताकी लहर चल पड़ी। यह एक सूक्ष्म प्रकारकी हिंसा थी। लेकिन इस भारी खामीके होते हुए भी मैं दावेके साथ यह कहता हूँ कि अहिंसाके प्रचारने हिंसाके उस तूफानको रोक दिया जो कि जरूर ही उठ खड़ा होता, अगर अहिंसात्मक असहयोग शुरू न हुआ होता। बहुत सोच-विचारके बाद मैं इस पक्की रायपर पहुँचा हूँ कि अहिंसात्मक असहयोगने लोगोंको अपनी ताकतकी पहचान करा दी है। इसने लोगोंके अन्दर कष्ट-सहनके जरिये प्रतिकार करनेकी छुपी ताकतको जगा दिया है। इसकी बदौलत जनतामें वह जागृति पैदा हो गई है जो कि शायद किसी और तरीकेसे न होती।

इसलिए यद्यपि अहिंसात्मक असहयोग हमें स्वराज्य नहीं दिला सका है, यद्यपि इससे कई खेदजनक नतीजे निकले हैं और यद्यपि जिन चीजोंका बहिष्कार करनेकी कोशिश की गई थी वे अब भी फल-फूल रही हैं तो भी मेरा विनम्र मत है कि अहिंसात्मक असहयोगने अब राजनीतिक आजादी हासिल करनेके एक साधनके तौरपर