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अध्यक्षीय भाषण: बेलगाँव कांग्रेसमें

जगह 'विदेशी कपड़ा न पहनना' रखा गया है। इसमें कोई शक नहीं कि बहिष्कार शब्दमें एक बुरी ध्वनि पाई जाती है। आम तौरपर इससे नफरतका भाव टपकता है। लेकिन जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, उस शब्दका उपयोग मैंने नफरतके मानीमें नहीं किया है। बहिष्कार अंग्रेजी कपड़ेका नहीं बल्कि विदेशी कपड़ेका है। इस भावमें बहिष्कार सिर्फ एक हक ही नहीं बल्कि फर्ज भी है। यह फर्ज उतना ही अहम है जितना कि किसी गैर-मुल्कसे लाये गये पानीका बहिष्कार--अगर वह इस गरजसे मंगाया जाये कि हिन्दुस्तानकी नदियोंके पानीके बजाय उसका इस्तेमाल हो। लेकिन यह तो विषयान्तर हुआ जा रहा है।

जो बात मैं आपसे कहना चाहता था वह तो यह है कि मेरे और स्वराज्यवादियोंके दरम्यान हुए समझौतेमें विदेशी कपड़ेके बहिष्कारको सिर्फ कायम ही नहीं रखा गया है, बल्कि उसपर और भी जोर दिया गया है। मेरे नजदीक तो यह तमाम हिंसात्मक उपायोंकी जगह ले सकनेवाला एक प्रभावकारी अहिंसक उपाय है। जिस तरह कि कई बातें, जैसे किसीको गाली देना, बुरी तरह पेश आना, झूठ बोलना, किसीको चोट पहुँचाना या खून करना, ये हिंसाभावकी निशानी है, उसी तरह शिष्टता, सौजन्य, सचाई, आदि अहिंसा-भावके प्रतीक हैं। बस इसी तरह विदेशी कपड़ेका बहिष्कार भी मेरे लिए अहिंसाका प्रतीक है। अराजकतावादी लोगोंके हिंसात्मक कार्योंका उद्देश्य सरकारपर दबाव डालना है। लेकिन यह दबाव गुस्से और अदावतके भावोंसे प्रेरित है और उसे एक किस्मका पागलपन कह सकते हैं। मेरा दावा है कि अहिंसात्मक तरीकोंसे जो दबाव डाला जा सकता है वह उस दबावसे कहीं ज्यादा प्रभावकारी होता है, जो हिंसात्मक तरीकोंसे डाला जा सकता है। और इसका कारण यह है कि वह सद्भाव और सौम्यतासे निष्पन्न होता है। विदेशी कपड़ेके बहिष्कारसे ऐसा ही दबाव पड़ता है। हमारे देशमें ज्यादातर विदेशी कपड़ा लंकाशायरसे ही आता है और यह आता भी है बाकी सब चीजोंसे सर्वाधिक मात्रामें। दूसरा स्थान चीनका है। ब्रिटेनका सबसे बड़ा स्वार्थ भारतके साथ होनेवाली लंकाशायरके कपड़े की तिजारतपर ही केन्द्रित है। भारतीय किसान जिन कारणोंसे बरबाद हुए हैं उनमें यह कारण सबसे बड़ा है। इसने उनको अपने सहायक धन्धेसे वंचित करके उन्हें अंशतः बेकार बना दिया है। इसलिए अगर हिन्दुस्तानके कृषि-जीवियोंको जिन्दा रखना है तो विदेशी कपड़े का बहिष्कार एक जरूरी बात है। इसलिए योजना यह है कि किसानों- को इस सस्ते और आकर्षक विदेशी कपड़ेको खरीदनेसे इनकार करनेके लिए ही तैयार न किया जाये, बल्कि उन्हें अपने अवकाशके समयमें रुई धुनना, सूत कातना, उस सूतको गाँवके बुनकरोंसे बुनवाना और इस प्रकार तैयार की हुई खादीको पहनना सिखाकर विदेशी कपड़ेको और विदेशी कपड़े को ही क्यों, भारतीय कारखानोंके कपड़ेको भी खरीदनेमें खर्च होनेवाला पैसा बचानेके लिए तैयार किया जाये। इस तरह हाथ-कताई और बुनाई यानी खादीके जरिये किया गया विदेशी कपड़ेका बहिष्कार न सिर्फ किसानके रुपयेकी बचत ही करता है बल्कि कार्यकर्त्ताओंको अव्वल दर्जेकी समाज-सेवा करनेका मौका देता है। यह देहात के लोगोंके साथ हमारा सीधा सम्बन्ध जोड़ता है।