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अध्यक्षीय भाषण: बेलगाँव कांग्रेसमें

इससे कम नहीं कि भारतकी कोशिशोंसे अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धोंको नैतिक आधार पर प्रतिष्ठित किया जाये। मैं अपना यह विश्वास नहीं छोड़ सकता कि सीमित रूपमें समाजगत अहिंसाका विकास भी सम्भव है। मैं इस बातको नहीं मानता कि मनुष्य-स्वभावका झुकाव हमेशा नीचेकी तरफ ही होता है।

हाथ-कताई या खादीके जरिये विदेशी कपड़ेके सफल बहिष्कारसे हम केवल प्रथम कोटिके प्रचण्ड राजनीतिक परिणामकी ही आशा नहीं रखते; उससे यह अपेक्षा भी है कि हिन्दुस्तानके गरीबसे-गरीब लोगोंको, स्त्रियों और पुरुषों, सभीको अपनी शक्तिका ज्ञान हो जायेगा ताकि देशकी आजादीके संग्राममें वे अपना पूरा हिस्सा लें।

विदेशी बनाम अंग्रेजी

अंग्रेजी कपड़े या जैसा कि कई देशभक्त सुझाते हैं अंग्रेजी मालके बहिष्कारमें हिंसाकी भावना तो स्पष्ट ही है, अतः उसकी तो मैं बात ही नहीं करता। किन्तु मैं समझता हूँ कि अब इतने विवेचनके बाद उसकी व्यर्थता बतानेकी जरूरत भी शायद ही रह गई है। मैं तो बहिष्कारकी बात सिर्फ हिन्दुस्तानके हितको ही दृष्टिमें रखकर कह रहा हूँ। हर किस्मके ब्रिटिश मालसे हमें नुकसान नहीं पहुँचता है। कुछ अंग्रेजी चीजें तो, जैसे किताबें, हमें अपनी बौद्धिक या मानसिक तरक्कीके लिए आवश्यक होती हैं। अब रहा कपड़ा, सो सिर्फ अंग्रेजी कपड़ा ही हमारे लिए हानिकर नहीं है, बल्कि तमाम विदेशी कपड़ा और केवल विदेशी कपड़ा ही क्यों, देशी मिलोंका कपड़ा भी हमें नुकसान पहुँचाता है। सारांश यह कि जो लाभ हाथ-कताई और खादी द्वारा किये गये बहिष्कारसे हासिल हो सकता है वह 'येन केन उपायेन' किये गये महज अंग्रेजी कपड़ेके बहिष्कारसे हरगिज नहीं हो सकता। मगर यह तभी हो सकता है जब कि हम तमाम विदेशी कपड़ेका पूरा बहिष्कार कर दें। इस बहिष्कारका हेतु किसीको सजा देना नहीं है; उसकी जरूरत तो राष्ट्रकी हस्तीको कायम रखने के लिए है।

आक्षेपोंपर विचार

लेकिन आलोचक कहते हैं कि चरखेके पैगामने लोगोंके दिलोंमें घर नहीं किया, उसमें जोश पैदा करनेकी ताकत नहीं है, यह सिर्फ औरतोंका पेशा है, इसके मानी मध्य युगकी दकियानूसी जीवन-पद्धतिकी ओर लौट जाना है। वे कहते हैं कि यह तो विज्ञानने जो शानदार प्रगति की है और यंत्र जिसके प्रतीक हैं, उसे रोकनेकी एक फिजूल कोशिश है। मेरी नम्र रायमें हिन्दुस्तानको इस समय जोश-खरोश की नहीं, बल्कि ठोस काम करने की जरूरत है। करोड़ों लोगोंके लिए तो जोश और ताकत दोनोंका नुस्खा ठोस काम ही है। बात यह है कि अभीतक हमने चरखेको पूरी तौरपर आजमाया ही नहीं है। मुझे अफसोसके साथ कहना पड़ता है कि हममें से कइयोंने तो अभी उसपर संजीदगीके साथ विचार भी नहीं किया है। यहाँतक कि अ० भा० कां० कमेटीके भी सब सदस्योंने समय-समयपर अपने ही द्वारा पास किये गये चरखा कातनेके प्रस्तावोंपर अबतक अमल नहीं किया है। हममें से अधिकतर लोग तो