की जाती है कि वह और बातोंके साथ महज हिन्दुओं और मुसलमानोंके ही नहीं, बल्कि देशके तमाम वर्गों, जातियों और सम्प्रदायोंके राजनीतिक मतभेदों को हल करनेका कोई व्यावहारिक और उचित हल खोज निकालेगी। इसमें हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्वकी पद्धति जितनी जल्दी हो सके समाप्त कर दी जाये। मतदाता मण्डल मिले-जुले हों और वे सिर्फ गुण और योग्यताके आधार पर निष्पक्ष होकर अपने प्रतिनिधियोंको चुनें। इसी तरह हमारी नौकरियों में भी निष्पक्ष भावसे सबसे ज्यादा योग्य स्त्री-पुरुष ही भरती किये जाने चाहिए। लेकिन जबतक कि वह दिन नहीं आता और जातिगत द्वेष और पक्षपातके भाव अतीतकी वस्तु नहीं बन जाते तबतक जो अल्प-संख्यक समुदाय बहुसंख्यक समुदायोंकी नीयतको शककी नजरसे देखते हों, उन्हें अपनी मर्जीके मुताबिक चलनेकी छूट होनी चाहिए और बहुसंख्यक समुदायोंको इस बारेमें स्वार्थ-त्यागका उदाहरण पेश करना चाहिए।
अस्पृश्यता
अस्पृश्यता स्वराज्यके मार्गमें दूसरी बाधा है। स्वराज्यकी प्राप्तिके लिए जैसी अनिवार्य आवश्यकता हिन्दू-मुस्लिम एकताकी है वैसी ही अस्पृश्यता-निवारणकी भी है। यह प्रश्न मुख्यतः हिन्दुओंसे सम्बन्धित है और जबतक हिन्दू दलित वर्गों को उनकी स्वतन्त्रता नहीं दे देते तबतक न तो उन्हें स्वराज्य माँगनेका कोई हक है और न वे उसे पा ही सकते हैं। उन्हें दबाकर हिन्दू स्वयं अधोगतिको प्राप्त हुए हैं। इतिहासकार हमें बताते हैं कि अंग्रेज आक्रमणकारियोंने हमसे जैसा व्यवहार किया है, यदि उससे बुरा नहीं तो बिलकुल वैसा ही बुरा व्यवहार आर्य आक्रमणकारियोंने भारतके मूल वासियोंसे किया था। यदि ऐसी बात है तो हमारी मौजूदा गुलामी हमारे द्वारा अस्पृश्य वर्गके निर्माणका उचित दण्ड ही है। इस कलंकको हम जितनी जल्दी धो डालें हिन्दुओंके लिए उतना ही हितकर होगा। किन्तु हमारे धर्माचार्य कहते हैं कि अस्पृश्यता तो विधिका विधान है। मैं यह दावा करता हूँ कि मुझे हिन्दू-धर्मकी कुछ जानकारी है। मुझे निश्चय है कि हमारे धर्माचार्योंका यह कथन ठीक नहीं है। यह कहना ईश्वरकी निन्दा करना है कि ईश्वरने मानव-जातिके एक वर्गको अस्पृश्य बनाया है और जो हिन्दू कांग्रेसमें हैं, उनका यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वे इस भेदभाव की दीवारको जल्दीसे-जल्दी तोड़ दें। वाइकोमके सत्याग्रही हमें मार्ग दिखा रहे हैं। वे नम्रता और दृढ़तासे अपनी लड़ाई चला रहे हैं। उनमें धैर्य, साहस और आस्था है। जिस आन्दोलनमें ये गुण प्रकट होते हों वह अदम्य बन जाता है।
किन्तु आजकल राजनीतिक स्वार्थ की पूर्तिके लिए दलित वर्गोंके दुरुपयोगकी जो वृत्ति दिखाई देती है, मैं अपने हिन्दू भाइयोंको उससे सावधान करना चाहता हूँ। अस्पृश्यता निवारणका कार्य एक प्रायश्चित्तका कार्य है। यह प्रायश्चित्त करना हिन्दुओंका हिन्दू धर्मके और अपने प्रति कर्तव्य है। जरूरत अस्पृश्योंको शुद्ध करनेकी नहीं है बल्कि कथित उच्च वर्णोंको शुद्ध करनेकी है। अस्पृश्योंमें ऐसी कोई बुराई नहीं है जो केवल उन्हीं में पाई जाती हो। वे दूसरोंसे अधिक मैले-कुचैले और गन्दे भी नहीं रहते। बात यह है कि हम बहुत घमण्डी हैं और हमारे इस घमण्डने हमें अपने