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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दोषोंके प्रति अन्धा बना दिया है। इसी कारण हमें दलित भाइयोंके, जिन्हें हमने कुचला है और अब भी कुचल रहे हैं, छोटे दोष भी बड़े दिखाई देते हैं। राष्ट्रोंकी तरह धर्म भी काँटेपर तोले जा रहे हैं। ईश्वरकी कृपा और ईश्वरीय ज्ञानपर किसी एक प्रजाति या राष्ट्रका इजारा नहीं है। वे तो जो ईश्वरकी भक्ति करते हैं, उन सभी को मिलते हैं। जिस धर्म और राष्ट्रका विश्वास, अन्याय, असत्य अथवा हिंसामें है, वह धर्म और राष्ट्र इस पृथ्वी-तलसे मिट जायेगा। ईश्वर प्रकाश है, अन्धकार नहीं। ईश्वर प्रेम है, घृणा नहीं। ईश्वर सत्य है, असत्य नहीं। ईश्वर ही महान् है। उसके बनाये हम सब प्राणी धूलके समान तुच्छ हैं। हमें विनम्र बनना चाहिए और यह मानना चाहिए कि इस पृथ्वीपर ईश्वरके बनाये हुए तुच्छसे-तुच्छ प्राणीके लिए स्थान है। कृष्णने चिथड़े पहने हुए सुदामाका अनुपम सम्मान किया था। प्रेम धर्म अथवा त्यागका मूल है और यह नश्वर शरीर अभिमान अथवा अधर्मका मूल है; यह तुलसीदासजीकी उक्ति है।[१]हमें स्वराज्य मिले या न मिले, हिन्दुओंको तो आत्मशुद्धि करनी ही होगी। तभी वे वैदिक-धर्मके तत्त्वोंके पुनरुज्जीवनकी और उन्हें वास्तविक रूप देनेकी आशा कर सकते हैं।

स्वराज्य की योजना

किन्तु चरखा, हिन्दू-मुस्लिम एकता और अस्पृश्यता-निवारण तो उद्देश्य की सिद्धिके साधन-मात्र हैं। हम उद्देश्यको नहीं जानते। मेरे लिए तो साधनको जानना ही पर्याप्त है। मेरे जीवन-दर्शनमें साधन और साध्यमें भेद नहीं है; जो साधन है वही साध्य भी है। किन्तु बाबू भगवानदास कहते हैं कि लोगों को उद्देश्यका अनिश्चित नहीं, बल्कि निश्चित ज्ञान होना चाहिए, और जैसा कि मैं जाहिर कर चुका हूँ, मुझे उनका यह विचार मान्य है। सारा भारत जिस स्वराज्यको लेना चाहता है, और जिसके लिए उसे लड़ना चाहिए, लोगोंको उस स्वराज्यकी पूरी परिभाषा अथवा योजनाका ज्ञान होना चाहिए। सौभाग्यसे सर्वदलीय परिषद् ने जो समिति नियुक्त की हैं, उसको यह काम सौंप दिया गया है। हमें यह आशा करनी चाहिए कि यह समिति एक ऐसी योजना तैयार कर सकेगी जो सब दलोंको मान्य होगी। क्या मैं इस समितिके विचारार्थ निम्न मुद्दे रख सकता हूँ?

१. सदस्यता की योग्यता न तो सम्पत्ति होनी चाहिए और न पद; बल्कि ऐसा शारीरिक श्रम होना चाहिए जैसा उदाहरणार्थ कांग्रेसकी सदस्यताके लिए सुझाया गया है। शैक्षणिक अथवा साम्पत्तिक कसौटी भ्रामक सिद्ध हुई है। जो लोग सरकारमें और राज्यके कल्याणमें भाग लेना चाहते हैं, उन सबको शारीरिक श्रमसे अवसर मिलता है।

२. विनाशकारी सैनिक खर्च घटा देना चाहिए और सामान्य समयमें जीवन और सम्पत्तिकी रक्षाके लिए जितना रखना आवश्यक हो उतना ही रखना चाहिए।

  1. दया धरमको मूल है, पाप मूल अभिमान।